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जैनदर्शन का त्रिविध साधनामार्ग और समत्वयोग
२.१.१ सम्यग्दर्शन : वीतरागता या समत्व के प्रति अनन्य निष्ठा
जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन का सम्बन्ध श्रद्धा से भी माना गया है। उत्तराध्ययनसूत्र एवं तत्त्वार्थसूत्र में जीवादि नवतत्त्व के प्रति श्रद्धा को ही सम्यग्दर्शन कहा गया है। जैसा हमने पूर्व में देखा है कि सम्यग्दर्शन के जो पांच अंग माने गये हैं, उनमें आस्तिक्य को भी एक अंग माना गया है। आस्तिक्य का अर्थ अनन्य निष्ठा या श्रद्धा ही है। यहाँ यह प्रश्न उठता है कि सम्यग्दर्शन में हम किसके प्रति श्रद्धा या निष्ठा को अभिव्यक्त करें। यद्यपि प्राचीन जैनाचार्यों ने तो जीवादि नवतत्त्वों के प्रति अनन्य निष्ठा को ही सम्यग्दर्शन कहा था; किन्तु परवर्ती काल में देव, गुरू और धर्म या शास्त्र के प्रति अनन्य निष्ठा को भी सम्यग्दर्शन कहा गया है और यह बताया गया है कि देव के रूप में वीतराग परमात्मा के प्रति, गुरू के रूप में पंचमहाव्रतधारी निर्ग्रन्थ मुनि के प्रति और धर्म के रूप में अहिंसामय धर्म के प्रति या शास्त्र के रूप में जिनवाणी के प्रति अनन्य निष्ठा ही सम्यग्दर्शन है। किन्त जैनाचार्यों के अनुसार ये देव, गुरू और धर्म आत्मा से भिन्न नहीं हैं। आत्मा का वीतराग शुद्ध स्वरूप ही देव है। आत्मा द्वारा उस परमात्मस्वरूप की प्राप्ति के प्रति जो पुरुषार्थ किया जाता है; उसके मार्गदर्शक के रूप में अपनी आत्मा ही गुरू है और आत्मा के शुद्ध स्वभाव में रमण करना ही धर्म है। इस प्रकार जैनदर्शन में श्रद्धा के केन्द्र के रूप में जो देव, गुरू और धर्म की चर्चा हुई है। वह भी वस्तुतः आत्मा की अनुभूति से भिन्न नहीं है। विशेषावश्यकभाष्य में जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने और
उत्तराध्ययनसूत्र २८/१५ । तत्त्वार्थसूत्र १/१४ । 'या देवे देवता बुद्धिर्गुरौ च गुरुतामतिः । धर्मे च धर्मधीः शुद्धा सम्यक्त्वमिमुच्यते ।। २/२ ।।' 'हिंसारहिय थम्मे अट्ठारहदोस वज्जिए देवे ।। णिग्गंथे पब्बयणे सद्दहणं होइ सम्मत्तं ।। ६० ।।' विशेषावश्यकभाष्य - गाथा ११८ ।
-योगशास्त्र ।
-मोक्षप्राभृत गाथा ।
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