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________________ जैन दर्शन में समत्वयोग की साधना सम्यग्दर्शन शब्द समत्व का पर्यायवाची ही है। आचारांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के पंचम अध्ययन के तृतीय उद्देश्क में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि सम्यग्दृष्टि वीर पुरुष इस संसार समुद्र को पार करते हैं। इसलिए उन्हें तीर्ण, मुक्त या विरत कहा जाता है।३७ आचारांगसूत्र के इस कथन से यही सिद्ध होता है कि समत्वयोगी ही सम्यग्दृष्टि होता है और उसे ही मुक्त, विरत, तीर्ण आदि नामों से जाना जाता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में सम्यग्दृष्टि और समत्वयोगी पर्यायवाची के रूप में प्रयुक्त हुए हैं। यह सत्य है कि वर्तमान में सम्यग्दर्शन का अर्थ श्रद्धा या आस्था किया जाता है; किन्तु जैनदर्शन में श्रद्धा या आस्था को ज्ञान और आचरण से पृथक् नहीं किया गया है। सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि जो समत्व का दृष्टा नहीं है अर्थात् सम्यग्दृष्टि नहीं है, ऐसे अप्रबुद्ध व्यक्ति की समस्त साधना अशुद्ध ही होती है। वह संसार परिभ्रमण का कारण बनती है। जैनदर्शन में स्पष्ट रूप से यह कहा गया है कि सम्यक्त्व के अभाव में ज्ञान और आचरण संसार परिभ्रमण के ही कारणभूत होते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्यग्दर्शन की साधना और समत्वयोग की साधना अथवा जैनदर्शन की पारिभाषिक शब्दावली में सामायिक की साधना को ही. वीतराग की साधना कहा जाय, तो भी अतिशयोक्ति नहीं होगी। क्योंकि वीतराग के प्रति अनन्य निष्ठा ही सम्यग्दर्शन का मूल अर्थ है और वीतराग वही होता है, जो समत्वयोगी है और जो समत्वयोगी है वही सम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार सम्यग्दर्शन वीतरागता या समत्वयोग एक दूसरे के पर्यायवाची ही सिद्ध होते हैं। जैसा कि हमने पूर्व में देखा है कि सम्यग्दर्शन का एक अर्थ वीतराग या वीतराग की वाणी के प्रति अनन्य निष्ठा ही है। वीतराग और समत्व एक दूसरे के पर्यायवाची ही हैं। वीतरागता के लिए अनासक्ति आवश्यक है और जो सांसारिक ३७ 'न इमं सक्कं सिढिलेहिं अद्दिज्जमाणेहिं गुणासाएहिं वंक समायरेहिं पमत्तेहिं गारमावसन्तेहिं । वीरा समत्त दंसिणो एस ओहन्तरे मुणी तिण्णे मुत्ते विरए वियाहिए तिबेमि ।।' सुत्रकृतांग १/८/२२ । -आचारांगसूत्र ५/३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001732
Book TitleJain Darshan me Samatvayog
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPriyvandanashreeji
PublisherPrem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
Publication Year2007
Total Pages434
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, Yoga, & Principle
File Size7 MB
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