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प्रस्तावना
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उद्भटने उदाहरण स्वरचित दिये हैं और अपने उदाहृत ग्रन्थका नाम कुमारसम्भव बतलाया है । यह कुमारसम्भव महाकवि कालिदास विरचित कुमारसम्भवसे भिन्न है । यद्यपि दोनों रचनाओंमें पर्याप्त साम्य है । श्री पी. वी. काणेने संस्कृत काव्यशास्त्रका इतिहास शीर्षक ग्रन्थमें लिखा है - ' दोनों रचनाओं में पर्याप्त साम्य है । शब्दों और भावों में ही नहीं किन्तु घटनाओं में भी वे एक-दूसरे से मिलते हैं । "
उद्भटके काव्यालंकार सारसंग्रहमें कोई नया मौलिक तथ्य उपलब्ध नहीं होता है । जिन तथ्योंका विवेचन भामह, दण्डी आदिने किया है तथा अग्निपुराण और नाट्यशास्त्र में जो अलंकारसम्बन्धी तथ्य उपलब्ध होते हैं उन्हीं तथ्योंका समावेश काव्यालंकारसारसंग्रहमें पाया जाता है । अलंकारचिन्तामणिमें मौलिकता अधिक है, इसमें शास्त्रीय चिन्तन भी उपलब्ध होता है ।
वामनका काव्यालंकारसूत्रवृत्ति और अलंकारचिन्तामणि
वामनने सूत्रशैली में काव्यालंकारसूत्रवृत्ति नामक ग्रन्थको रचना की है । इस ग्रन्थ में पाँच अधिकरण, बारह अध्याय और तीन सौ उन्नीस सूत्र हैं । प्रथम अधिकरणमें काव्यलक्षण, काव्यप्रयोजन, अधिकारी, रीति और काव्यके अंग; द्वितीयमें दोष; तृतीय में गुण; चतुर्थ में अलंकार और पंचममें काव्यसमय तथा शब्दशुद्धि प्रकरण है । शब्दशुद्धि प्रकरण में भामह के षष्ठ परिच्छेद के साथ अधिक साम्य है । इन्होंने तैंतीस अलंकारोंका निरूपण किया है, जिनमें इकतीस इनके पूर्ववर्ती भामह और दण्डी द्वारा निरूपित हैं । वक्रोक्ति एवं व्याजोक्ति ये दो अलंकार इनके द्वारा नवीन आविष्कृत हैं ।
वामनने काव्यालंकारसूत्रवृत्तिमें काव्यहेतु के लिए काव्यांग शब्दका प्रयोग किया है । इन्होंने काव्यके तीन हेतु माने हैं - १. लोक, २. विद्या और ३. प्रकीर्ण । लोकका अर्थ है लोक व्यवहार । विद्यासे शब्दशास्त्र, कोश, छन्दशास्त्र, कला, दण्डनीति आदि विषयोंका ग्रहण होता है । प्रकीर्णके अन्तर्गत लक्ष्यज्ञान, अभियोग, वृद्धसेवा, अवेक्षण, प्रतिभान और अवधान आते हैं । लक्ष्यज्ञानका अर्थ है दूसरोंके काव्यसे परिचय; अभियोग से तात्पर्य है काव्यरचनामें प्रयास तथा काव्यकलाकी शिक्षा देने योग्य गुरुजनोंकी सेवा, वृद्धसेवा है; उपयुक्त पदोंका चयन और अनुपयुक्त पदोंका त्याग अवेक्षण कहलाता है; प्रतिभान तो कवित्तका बीज है । यह एक जन्मान्तरगत संस्कारविशेष है जिसके बिना काव्यसम्भव नहीं होता ।
वामनके काव्यालंकारसूत्रवृत्ति और अलंकारचिन्तामणिके तुलनात्मक अध्ययनसे यह स्पष्ट होता है कि वामनका उक्त विवेचन विचित्र है । अलंकार चिन्तामणिमें लोक और शास्त्रको पृथक्-पृथक् ग्रहण न कर व्युत्पत्तिके अन्तर्गत स्थान दिया गया है । इसीको अन्यत्र निपुणता कहा है । वामनके मतानुसार लोक व्यवहार ज्ञान और
१. संस्कृत काव्यशास्त्रका इतिहास, हिन्दी अनुवाद, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, सन् १६६६, पृ. १७३ । For Private & Personal Use Only
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