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________________ ५० . अलंकारचिन्तामणि अलंकारचिन्तामणिकी इस उक्ति से यह स्पष्ट है कि गुण काव्यमें अत्यन्त शोभाका उपवृंहण करता और अलंकार शब्द एवं अर्थको चमत्कृत करता है । केवल गुण काव्यके शोभाकारक हो सकते हैं, पर केवल अलंकार नहीं। दण्डीने न तो गुणकी परिभाषा ही निर्धारित की है और न गण और अलंकारका भेद ही बतलाया है। दण्डी द्वारा निरूपित गुणोंका क्रम और लक्षण भी अलंकारचिन्तामणिकी अपेक्षा भिन्न है। अजितसेनने चौबीस गुण बतलाये हैं और इन गुणोंका सोदाहरण स्वरूप अंकित किया है। अलंकारचिन्तामणिका दोष प्रकरण भी काव्यादर्शके दोष प्रकरणकी अपेक्षा अधिक और विशिष्ट है। दोषोंकी संख्या, उनकी परिभाषाएँ भी भिन्न रूपमें आयी हैं । रीतियोंका निरूपण दोनों ग्रन्थोंमें समान रूपसे पाया जाता है। रीतिकी परिभाषा काव्यादर्शमें उपलब्ध नहीं है, पर अलंकारचिन्तामणिमें रीतिकी परिभाषा स्पष्ट रूपमें आयी है। अजितसेनने रीतिके सम्बन्धमें लिखा है-'गुणसंश्लिष्टशब्दोघसंदर्भो रीतिरिष्यते' ' अर्थात् गुणसहित सुगठित शब्दावलीयुक्त सन्दर्भको रीति कहते हैं । अजितसेनने रीतिकी इस परिभाषामें दो तत्त्वोंको आधार माना है १. गुण, और २. समास । वैदर्भी रीतिमें काठिन्यरहित छोटे-छोटे समासवाली पदावलीको प्रमुखता दी है। गौडीमें ओजगुण और कान्तिगुणको महत्त्व दिया गया है तथा पांचालीमें कोमल समाससे युक्त और अधिक संयुक्ताक्षरोंके अभावको महत्त्व दिया है। इस प्रकार रीतिके सम्बन्धमें दण्डीसे अधिक सामग्री अजितसेनने उपस्थित की है। उद्भटका काव्यालंकारसारसंग्रह और अलंकारचिन्तामणि उद्भटका एक लघुकाय ग्रन्थ काव्यालंकारसारसंग्रह उपलब्ध है। इस ग्रन्थका प्रकाशन भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना द्वारा हुआ है। उद्भटने रसका अधिक विवेचन नहीं किया और न रसको काव्यको आत्मा ही माना है । उन्होंने रसवत् अलंकारकी परिभाषामें रसोंका केवल नामोल्लेख मात्र किया है। उद्भटने गुण और अलंकारमें एक ही स्वभाव स्वीकार किया है। वे दोनों ही काव्यसौन्दर्यके वर्द्धक हैं और दोनोंका ही सम्बन्ध शब्द और अर्थ दोनोंके साथ है। इनमें भेद केवल यही है कि ये काव्यके भिन्न-भिन्न अंग हैं । इसी कारणसे इनका पृथक्-पृथक् निर्देश किया जाता है । उद्भटने न काव्यहेतुओंपर विचार किया है न रीति, वृत्ति आदिपर ही। अतः काव्यालंकारसारसंग्रहकी अपेक्षा अलंकारचिन्तामणिमें विषय तो अधिक निरूपित हैं ही, साथ ही वैज्ञानिक दृष्टि से काव्य उपकरणोंपर विचार किया गया है। अलंकारोंके वर्गीकरणका आधार उनके स्वरूप, उदाहरण और पारस्परिक भेद निश्चयतः अलंकारचिन्तामणिके विशिष्ट हैं। रसोंका जैसा स्पष्ट और संक्षिप्त विवेचन अलंकारचिन्तामणिमें पाया जाता है, वैसा अलंकारसारसंग्रहमें नहीं। १. अलंकारचिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, ५॥१३४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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