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अलंकारचिन्तामणि
शास्त्रज्ञान पृथक्-पृथक् काव्यके हेतु नहीं हैं अपितु इन दोनोंके समवेत प्रभावरूप निपुणता ही कविकर्म में सहायक हो सकती है । अलंकारचिन्तामणिमें अजितसेनने अभ्यासके साथ व्युत्पत्ति, प्रज्ञा और प्रतिभाको काव्यरचनाका हेतु माना है । जहाँ तक प्रतिभाका प्रश्न है वहाँ तक अलंकारचिन्तामणि और काव्यालंकारसूत्रवृत्ति दोनों ही एकमत हैं । वस्तुतः अलंकारचिन्तामणिमें कविकी योग्यता के अन्तर्गत प्रतिभा, वर्णनक्षमता, शास्त्राभ्यास एवं व्युत्पत्तिको परिगणित किया है । वामनने भी प्रकीर्ण, लोक और विद्याके अन्तर्गत अलंकारचिन्तामणिमें निरूपित कवियोग्यताको ही विवेचित किया है । लोकानुभव और शास्त्रज्ञान वर्णनक्षमता और शास्त्राभ्यास के तुल्य हैं । इस प्रकार काव्यहेतुओंके सम्बन्ध में विचार-विनिमय प्राप्त होता है ।
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वामनकी मौलिक उद्भावनाओं में 'रीतिरात्मा काव्यस्य' अर्थात् काव्यकी आत्मा रीतिको बतलाना है । वामनके पूर्व भरत, भामह, दण्डी किसी भी आचार्यने रीतिको काव्यकी आत्मा नहीं माना है । दण्डीने रीति के लिए मार्ग शब्दका प्रयोग किया है और वैदर्भी एवं गौडीया ये दो रीतियाँ मानी हैं । वामनने पांचाली रीतिकी उद्भावना की है । इसमें सन्देह नहीं कि पूर्वाचार्योंकी अपेक्षा वामनका रीति- विवेचन अधिक साहित्यिक है । इसकी परिधि में शब्दचमत्कार, अलंकारसम्पदा और अर्थ - स्वारस्यका भी समावेश हो जाता है । इन्होंने रीतिको शब्द सौन्दर्य, उक्ति सौन्दर्य और अर्थसौन्दर्यका संयुक्त पर्याय स्वीकार किया है ।
वामनने शब्दगुण और अर्थगुणकी पृथक् उद्भावना की है । गुणोंकी परिभाषाएँ भी इनकी नूतन हैं । अर्थगुणों के अन्तर्गत अर्थकी प्रौढ़ि, उक्ति वैचित्र्य तथा रसदीप्तिका भी समावेश कर गुणों का स्वरूप अधिक समृद्ध और व्यापक कर दिया है ।
अलंकार चिन्तामणिके साथ रीति और गुणोंकी तुलना करनेपर अवगत होता है कि अजितसेन रीति-विवेचनमें वामन से प्रभावित हैं । यद्यपि इन्होंने रीतिको काव्यकी आत्मा नहीं माना, पर वैदर्भी, गौडी और पांचाली रीतियोंके लक्षण इन्होंके तुल्य हैं । रीतिकी सामान्य परिभाषा भी काव्यालंकारसूत्रवृत्तिसे प्रभावित है । वामनने वैदर्भी रीतिको जहाँ समग्रगुणयुक्त बताया है, वहाँ अलंकारचिन्तामणिमें 'मुक्तसंदर्भपारु - ध्यानतिदीर्घसमासिको' सन्दर्भके पारुष्य- काठिन्यसे रहित छोटे-छोटे समासवाली तथा कर्कश शब्दावली से रहित रीतिको वैदर्भी रीति कहा है । काव्यालंकारसूत्रवृत्तिमें शुद्ध वैदर्भी रीति की यही परिभाषा बतलायी गयी है, अतः रीति-विवेचनके लिए अलंकार - चिन्तामणिपर वामनका ऋणभार प्रतीत होता है ।
गुण- विवेचन में अलंकारचिन्तामणिकी पद्धति काव्यालंकारसूत्रवृत्तिकी पद्धतिसे भिन्न है । अलंकारचिन्तामणि में अर्थगुण और शब्दगुणका पार्थक्य स्वीकार नहीं किया गया है । यतः शब्दगुण और अर्थगुणकी परिभाषाओं में परस्पर संक्रमण होता है ।
१. काव्यालंकारसूत्रवृत्ति १२६ ।
२. अलंकार चिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, ५।१३५ ।
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