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अलंकारचिन्तामणि दण्डीने काव्यमूल्यांकनके सिद्धान्तमें वैदर्भ और गौडीय मार्गोका निरूपण किया है । श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि ये दस गुण वैदर्भ मार्गके प्राण है। गौडी मार्गमें प्रायः इनका विपर्यय लक्षित होता है। दण्डीने निन्ति शब्दोंमें रीतिमें व्यक्तित्वकी सत्ता स्वीकार की है। इन्होंने रीति और गुणका सम्बन्ध स्थापित कर वैदर्भकाव्यको सत्काव्य माना है। इनकी दृष्टि में अर्थव्यक्तिअर्थकी स्फुट प्रतीति करानेकी शक्ति, औदार्य, प्रतिपाद्य अर्थमें उत्कर्षका समावेश और समाधि--एक वस्तुके धर्मका दूसरी वस्तुमें सम्यक रूपसे आधान, ये तीन गुण काव्यके लिए अनिवार्य धर्म हैं। क्योंकि अर्थव्यक्तिहीन काव्य हृदयंगम नहीं हो सकता ।
औदार्यरहित होकर वह इतिवृत्त मात्र रह सकता है, पर हृदयाह्लादक, सत्काव्य नहीं । समाधि तो दण्डीको दृष्टिसे काव्यसर्वस्व है। दण्डी काव्यकी परिभाषामें दोषको उपेक्षणीय नहीं मानते । उनका कथन है
तदल्पमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथंचन ।
स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणकेन दुर्भगम् ॥ स्पष्ट है कि दण्डी दोषरहित और अलंकारसहित शब्दार्थको काव्य मानते हैं। इनकी दृष्टिमें रसका उतना महत्त्व नहीं है, जितना अलंकारचिन्तामणिकारकी दृष्टिमें है। यों तो काव्यादर्शमें- “कामं सर्वोऽप्यलंकारो रसमर्थे निषिञ्चति ।"' अर्थात् अलंकारोंको रसके उत्कर्ष कहकर काव्यमें रसका अस्तित्व स्वीकार किया है। अतएव संक्षेपमें यही कहा जा सकता है कि अलंकारचिन्तामणिका काव्यस्वरूप, काव्यादर्शके काव्यस्वरूपकी अपेक्षा अधिक व्यापक और स्पष्ट है।
अलंकार विवेचनकी दृष्टिसे दोनों ग्रन्थोंकी तुलना करनेपर अवगत होता है कि दण्डीने अलंकारका कोई विशेष लक्षण प्रतिपादित नहीं किया है। अलंकार निरूपणके प्रारम्भमें लिखा है-'काव्यशोभाकरान् धर्मानलंकारान् प्रचक्षते'' यहाँ काव्यशोभाकर धर्मको अलंकार कहा है। और शृंगारादि रसयुक्त रचनाको मधुर गुणवाली बतलाकर अलंकार और रसका सम्बन्ध स्थापित किया है। पर अजितसेनने अलंकारचिन्तामणिके
१. श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता ।
अर्थव्यक्तिरुदारत्व-ओजःकान्तिसमाधयः॥ इति वैदर्भमार्गस्य प्राणाः दश गुणाः स्मृता।- काव्यादर्श, बजरत्नदास अनूदित, काशी, १९२८ संवत्.
१।४१-४२ । २. वही, १।४२। ३, वही, ११७३। ४. वही, १७६। ५. वही, १०६३। ६. वही, १११००। ७. वही, १७। ८. वही, १६६२ । १. वही, २।१।
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