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________________ प्रस्तावना ४३ हैं । इस प्रकार गुणोंकी वर्णन प्रणाली अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागकी, अलंकारचिन्तामणिकी अपेक्षा भिन्न है । अलंकारचिन्तामणिमें चौबीस गुणों का विवेचन आया है । गुणोंकी परिभाषा और उदाहरण भी प्रस्तुत किये गये हैं । दोष प्रकरण दोनों ही ग्रन्थोंमें वर्णित हैं पर अलंकार चिन्तामणिका दोष-प्रकरण अग्निपुराणके दोष प्रकरणकी अपेक्षा अधिक विस्तृत और स्पष्ट है । अजितसेनने पद, वाक्य और अर्थ - दोषोंका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । अलंकारचिन्तामणिमें अग्निपुराण के समान ही कविसमयका भी निरूपण आया है । भामहका काव्यालंकार और अलंकारचिन्तामणि उपलब्ध काव्यनियम ग्रन्थों में नाट्यशास्त्र और अग्निपुराणके पश्चात् अलंकार शास्त्रपर लिखा गया आचार्य भामहका काव्यालंकार ग्रन्थ है । यह ग्रन्थ छह परिच्छेदों में विभक्त है और लगभग चार सौ पद्य हैं । प्रथम परिच्छेद में काव्य-प्रशंसा, काव्य-साधन, काव्यलक्षण, काव्यभेद और काव्यदोषोंका निरूपण आया है । द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकार और अर्थालंकारोंका निरूपण है । इस परिच्छेद में अनुप्रास, लाटानुप्रास, यमक के भेद, यमककी विशेषताएँ, रूपक, एकदेश विवत, दीपक, उपमा, उपमाके भेद, उपमाके दोष, आक्षेप, अर्थान्तरन्यास, व्यतिरेक, विभावना, समासोक्ति, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति हेतु सूक्ष्म, यथासंख्य, उत्प्रेक्षा और स्वभावोक्तिका स्वरूप प्रतिपादित हुआ है। } तृतीय परिच्छेद में प्रेयस्, रसवत्, ऊर्जस्वी, पर्यायोक्ति, समाहित, उदात्त, श्लिष्ट, अपह्नुति, विशेषोक्ति, विरोध, तुल्ययोगिता, अप्रस्तुत प्रशंसा, व्याजस्तुति, निदर्शना, उपमारूपक, सहोक्ति, परिवृत्ति, सन्देह, अनन्वय, संसृष्टि, भाविक और आशी अलंकारोंके स्वरूप वर्णित हैं । द्वितीय और तृतीय परिच्छेदमें अनुप्राससे आशी अलंकार तक अड़तीस अलंकारोंके स्वरूप आये हैं । भामहने लाटानुप्रास और प्रतिवस्तूपमाको उपमाके भेदों में परिगणित किया है । यदि इनकी पृथक् गणना की जाये तो चालीस अलंकारोंका स्वरूपविश्लेषण इस अलंकारशास्त्रमें आया है । चतुर्थ परिच्छेद में अपार्थं, व्यर्थ, एकार्थ, ससंशय, अपक्रम, शब्दहीन, यतिभ्रष्ट, भिन्नवृत्त, विसन्धि, देशविरोधि, कालविरोधि, कलाविरोधि, न्यायविरोधि, और आगमविरोधी दोषोंका सोदाहरण लक्षण आया है । पंचम परिच्छेदमें प्रतिज्ञाहीन आदि दोषों के निरूपणका प्रयोजन, प्रमाणकी आवश्यकता, भेद, तथा विषय, प्रतिज्ञाके दोष, काव्यहेतुके दोष और दोषोंकी त्याज्यताका विवेचन आया है । षष्ठ परिच्छेदमें शब्द-शुद्धि विषयक शिक्षाका निरूपण है । इस प्रकरण में अपोहवादका खण्डन और काव्योपयोगी शब्दोंपर विचार किया गया है । उपर्युक्त विषय वर्णनसे यह स्पष्ट है कि अलंकारशास्त्र सम्बन्धी समस्त विषयोंका समावेश Jain Education International भामहने भी अपने काव्यालंकार में किया है । जिस प्रकार अलंकार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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