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अलंकारचिन्तामणि अग्निपुराणमें नाट्यशास्त्रके समान ही चार रसोंको कारण और चारको कार्य माना गया है। यह सन्दर्भ अलंकारचिन्तामणिमें भी प्राप्त है। अग्निपुराणमें यों तो नव रसोंकी चर्चा आयो है पर शान्तरसको वह स्थान प्राप्त नहीं है जो स्थान अलंकारचिन्तामणिमें प्राप्त है। स्थायी भावोंकी आठ ही संख्या मानी गयी है । लिखा है
स्थायिनोऽष्टौ रतिमुखाः स्तम्भाद्या व्यभिचारिणः ।
मनोऽनुकूलेऽनुभवः सुखस्य रतिरिष्यते ॥ अर्थात् रत्यादि आठ स्थायी भाव कहलाते हैं और स्तम्भादि आठ व्यभिचारी भाव । सुखके मनोनुकूल अनुभवको रति कहते हैं। शान्तरसके स्थायी भावका स्पष्ट उल्लेख इस ग्रन्थमें उपलब्ध नहीं होता है। इसमें सन्देह नहीं कि अलंकारचिन्तामणिका रस प्रकरण अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागकी अपेक्षा अधिक समृद्ध है।
रीति और वृत्तिका निरूपण दोनों ही ग्रन्थों में प्रायः समान है। अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागमें नाटक और नृत्यसम्बन्धी उल्लेख विशिष्ट हैं । सत्त्वाश्रय, वागाश्रय, अंगाश्रय और आरहणाश्रय, ये चार प्रकारके अभिनय भी अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागमें विशिष्ट रूपमें प्राप्त होते हैं। शृंगारके भेद-प्रभेद एवं शृंगार-सम्बन्धी अन्य बातें दोनों ग्रन्थोंमें प्रायः तुल्य हैं।
अनुप्रास अलंकारका जितना विस्तृत विवरण अलंकारचिन्तामणिमें पाया जाता है उतना विस्तृत विवरण अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागमें उपलब्ध नहीं होता है । इसी प्रकार यमकके ग्यारह भेदोंका सोदाहरण निरूपण, अलंकारचिन्तामणिमें आया है । अग्निपुराणके काव्यशास्त्रीय भागमें भी यमकके मूलतः दो भेद बतलाये हैं-अव्यपेत और व्यपेत । अव्यपेतके आठ भेद और व्यपेतके भी आठ भेद बतलाये गये हैं। पादभेदकी अपेक्षा पादादि, पादमध्य, पादान्त, कांचीयमक, संसर्गयमक, विक्रान्तयमक, पादादियमक, आम्रडित, चतुर्व्यवसित, तथा मालायमक आदि दस प्रकारके भेद बताये गये हैं। यों तो यमकके अनेक भेद हो जाते हैं। अजितसेनने भी अलंकारचिन्तामणिमें यमककी इसी प्रकार मीमांसा प्रस्तुत की है।
अर्थालंकारके प्रकरणमें प्रधान रूपसे आठ अर्थालंकारोंका ही निर्देश आया है : स्वरूप, सादृश्य, उत्प्रेक्षा, अतिशय, विभावना, विरोध, हेतु और सम । अलंकारचिन्तामणिमें बहत्तर अर्थालंकारोंका स्वरूप विवेचन आया है। अर्थालंकारोंके स्वरूप विवेचनकी दृष्टिसे अलंकारचिन्तामणि विशेष महत्त्वपूर्ण है। उपमाके भेद-प्रभेद, दोनों ही ग्रन्थोंमें वर्णित हैं।
गुण और दोष प्रकरण भी दोनों ग्रन्थों में आये हैं। अग्निपुराणमें शब्दगुण, अर्थगुण और शब्दार्थगुण ये तीन भेद सामान्य गुणके किये हैं। शब्दगुणके श्लेष, लालित्य, गाम्भीर्य, सुकुमारता, उदारता, सत्य और यौगिकी ये सात भेद किये गये
१. अग्निपुराणका काव्यशास्त्रीय भाग, ३/१३, पृ. ३ ।
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