SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलंकारचिन्तामणि ४. सम्यक् प्रयोगोंसे युक्त। ५. व्यंग्यदि अर्थोंसे समन्वित । ६. प्रसाद-माधुर्य आदि गुणोंसे युक्त । ७. नायकके चरितवर्णनसे संपृक्त । ८. उभय लोक हितकारी। ९. सुस्पष्टतायुक्त। १०. दोषशून्य। नाट्यशास्त्र और अलंकारचिन्तमणिकी काव्यपरिभाषा पर तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करने पर ज्ञात होता है कि अलंकारचिन्तामणिकी काव्यपरिभाषा नाट्यशास्त्रकी काव्यपरिभाषाकी अपेक्षा विशिष्ट है। इस परिभाषामें रीति, गुण और अलंकारोंका समन्वय किया गया है तथा व्यंग्यार्थको काव्यका अनन्य तत्त्व माना है। भरत मुनिने नाट्यशास्त्र में काव्यहेतुओंका विचार नहीं किया है । पर अलंकारचिन्तामणि में काव्यहेतुओंकी चर्चा की गयी है। जिसके द्वारा काव्यरचना में कविको सफलता प्राप्त होती है, अर्थात् जिसका होना कवि में परमावश्यक है उसे काव्यका हेतु बताया है। अजितसेनने काव्यरचनामें व्युत्पत्ति, प्रज्ञा और प्रतिभा इन तीनको कारण माना है। शास्त्रोंका अभ्यास भी काव्यनिर्माणमें हेतु है। व्युत्पत्ति के अन्तर्गत छन्दशशास्त्र, अलंकारशास्त्र, गणित, कामशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, शिल्पशास्त्र, तर्कशास्त्र एवं अध्यात्मशास्त्रोंमें गुरु परम्परासे प्राप्त उपदेश द्वारा अर्जित निपुणता-बहुज्ञता, व्युत्पत्ति है। व्युत्पत्तिके अभावमें कोई भी कवि श्रेष्ठ कान्यकी रचना नहीं कर सकता। प्रतिभावान् कवि भी विभिन्न शास्त्रोंके परिज्ञानाभावमें लोकोपयोगी काव्य रचने में असमर्थ रहता है। यही कारण है कि अजितसेनने काव्यहेतुओंमें व्युत्पत्तिको पहला स्थान दिया है। लिखा है व्युत्पत्त्यभ्याससंस्कार्या शब्दार्थघटनाघटा। प्रज्ञा नवनवोल्लेखशालिनी प्रतिभास्य धीः ॥ व्युत्पत्ति के साथ अभ्यासके संस्कारको भी काव्यप्रतिभाके लिए आवश्यक माना है। अजितसेन ने काव्यरचनामें प्रज्ञा और प्रतिभाको भी कारण माना है। प्रज्ञाका तात्पर्य रचना गुम्फनकी क्षमता है। इसीको कोशमें 'त्रैकालिकी बुद्धिः प्रज्ञा' कहा गया है। और प्रतिभाके अन्तर्गत नवीन-नवीन विषयोंको कल्पित करनेकी क्षमता मानी गयी है। कल्पनाको मूर्तरूप प्रदान करनेवाली शक्ति प्रज्ञा कही जाती है। इस प्रकार आचार्य अजितसेनने शक्तिको दो अंशोंमें विभक्त कर दिया है-प्रज्ञा और प्रतिभा । यह सत्य है कि प्रतिभा नैसर्गिकी होती है, यह जन्मजात है, अध्ययन या चिन्तनसे इसे प्राप्त नहीं १. अलंकारचिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, १६, पृ. सं. ३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy