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प्रस्तावना
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आदि अनुभाव, भयानक रसमें भी होते हैं । अंगोंका कटना तथा रक्तका प्रवाहित होना आदि देखकर एक पक्षमें भयकी भी उत्पत्ति होती है ।
भरतमुनिने रसोंके वर्ण, देवता आदिका भी कथन किया है । भरतमुनिने आठ नाट्यरसोंके अतिरिक्त शान्तरसका भी विवेचन किया है । रसाध्यायके अन्त में आठ ही रसोंका उपसंहार किया है । इससे ध्वनित होता है कि शान्तरसका प्रकरण कभी बाद में जोड़ा गया है । शम, स्थायी भाववाले मोक्ष प्रवर्तक रसको शान्तरस कहा है । इसे तत्त्वज्ञान, वैराग्य तथा चित्तशुद्धि आदि विभावोंसे उत्पन्न होनेवाला कहा गया है । यम, नियम, अध्यात्म, ज्ञान, ध्यान, धारणा, उपासना, दया तथा प्रवृज्याग्रहण आदि इसके अनुभाव बताये गये हैं । निर्वेद, स्मृति, धृति, शौच, स्तम्भ तथा रोमांच आदि इसके व्यभिचारी भाव कहे हैं । नाट्यशास्त्रमें रति आदि भावोंको विकृति तथा शमको प्रकृति कहा गया है । इसके अनुसार अपने-अपने निमित्त प्राप्त करके रति आदि भाव शान्त से ही उत्पन्न होते हैं और निमित्तोंके अभाव में पुनः शान्तरसमें मिल जाते हैं ।
अलंकारके विचारप्रकरणमें चार ही अलंकारोंका निर्देश आया है । उपमा, रूपक, दीपक और यमक; इन चारोंके भेदोंका भी निरूपण हुआ है । काव्यदोषों में दस दोषों की गणना की है- १. गूढ़ार्थ, २ अर्थान्तर, ३. अर्थहीन, ४. भिन्नार्थ, ५. एकार्थ, ६. अविलुप्तार्थ, ७. न्यायादपेत, ८. विषम, ९. विसन्धि और १०. शब्दच्युत । गुणों में १. श्लेष, २. प्रसाद, ३ समता, ४. समाधि, ५. माधुर्य, ६. ओज, ७. सौकुमार्य, ८. अर्थ व्यक्ति, ९. उदात्त और १० कान्तिकी गणना की है ।
अलंकार चिन्तामणिमें नाट्यशास्त्र में प्रतिपादित सभी काव्यांग निरूपित हैं । नाट्यशास्त्र में काव्यकी जो परिभाषा अंकित की गयी है उसकी अपेक्षा अलंकारचिन्तामणिमें निरूपित काव्य- परिभाषा विशिष्ट है । इस अलंकारशास्त्र में अलंकार, रस, ति, गुण और व्यंग्यार्थ से समन्वित काव्य माना है | श्रुतिकटु आदि दोषोंका अभाव भी आवश्यक माना गया है । काव्य - परिभाषा निम्न प्रकार है
शब्दार्थालंकृतीद्धं नवरसकलितं रीतिभावाभिरामम्
व्यंग्याद्यर्थं विदोषं गुणगणकलितं नेतृसद्वर्णनाढ्यम् ।
लोको द्वन्द्वोपकारि स्फुटमिह तनुतात् काव्यमग्र्यं सुखार्थी नानाशास्त्रप्रवीणः कविरतुलमतिः पुण्यधर्मोरुहेतुम् ॥
१
उपर्युक्त परिभाषाका स्फोटन करनेपर निम्नलिखित तत्त्व निष्पन्न होते हैं
१. शब्दालंकार और अर्थालंकारोंसे युक्त ।
२. शृंगारादि नवरससहित ।
३. वैदर्भी इत्यादि रीतियोंसे युक्त ।
९. अलंकार चिन्तामणि, ज्ञानपीठ संस्करण, पृ. सं. २, १७
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