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________________ . अलंकारचिन्तामणि गुडादिभिर्द्रव्यय॑ञ्जनैरोषधीभिश्च षड् रसा निवर्त्यन्ते, एवं नानाभावोपहिता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्ति ।" ___ भरतमुनिने ध्वनि और गौणीभूत व्यंग्यका विवेचन नहीं किया है । रस-विवेचन सन्दर्भ में आठ नाट्यरसोंको ही माना है । शान्तरसको रसके रूपमें संकोचपूर्वक स्वीकार किया है। इन्होंने रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा तथा विस्मय ये आठ स्थायी भाव माने हैं। निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिन्ता आदि तैंतीस व्यभिचारी भाव और स्तम्भ, स्वेद-रोमांच, स्वरसाद, वेपथु, वैवर्ण्य, अश्रु तथा प्रलय ये सात्त्विक भाव बतलाये हैं। आठ स्थायी, तैंतीस संचारी या व्यभिचारी और आठ सात्त्विक ये कुल मिलाकर उनचास भाव हैं जो काव्य या नाट्य रसके कारणभूत हैं। रसके सम्बन्धमें भरतमुनि ने शृंगार, रौद्र, वीर और बीभत्स इन चार रसोंका उत्पादक अर्थात् मूलरस माना है। शेष चार हास्य, करुण, अद्भत और भयानकको क्रमशः उक्त रसोंसे उत्पन्न होनेवाला कहा है । इन्होंने लिखा है श्रृंगाराद्धि भवेद्धास्यो रौद्राच्च करुणो रसः । वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिः बीभत्साच्च भयानकः ॥ अर्थात् शृंगारसे हास्य, रोद्रसे करुण, वीरसे अद्भुत और बीभत्ससे भयानक रसकी उत्पत्ति होती है। इस कथनकी पुष्टि करते हुए भरतमुनिने लिखा है कि जो शृंगारकी अनुकृति है, वही हास्यरस है, जो रौद्रका कर्म है वही करुण रस है । वीरका कर्म अद्भूत रस कहलाता है। बीभत्सका दर्शन ही भयानक रस कहा जाता है। इस तथ्यका स्फोटन करनेपर अवगत होता है कि शृंगारमें उत्पत्तिहेतुत्व अनुकृतिके कारण है। उदाहरणार्थ एक वृद्ध एवं विकलांग नायक तथा षोडशी नायिकाके शृंगारको लिया जा सकता है । यहाँ शृंगार रति न उत्पन्न कर हासको ही उत्पन्न करता है। इसी कारण शृंगारको हास्यका उत्पादक कहा है। रौद्रका कर्म करुणरस कहा गया है। इसमें उत्पत्तिहेतुत्व फलसे सम्बन्धित है। रौद्र रसका फल या परिणाम वध या बन्धन आदि है। ये वध-बन्धनादि पीड़ित पक्षके लिए करुणाजनक है; इसी कारण रौद्रसे करुणकी उत्पत्ति मानी गयी है । वीररससे अद्भुतरसकी उत्पत्ति मानने में भी उत्पत्तिहेतुत्व फलसे ही सम्बन्धित है । पर यह रोद्रवाले उत्पत्तिहेतुत्वसे भिन्न है। इसमें एक रस दूसरे रसको ही फल मानकर प्रवृत्त होता है। वीररसमें कारणीभूत उत्साह जगत्को विस्मित करता है। फलस्वरूप इससे अद्भुत रसका जन्म होता है। बीभत्स द्वारा भयानक रसकी उत्पत्ति मानने में उत्पत्तिहेतुत्व समान विभवत्वसे सम्बन्धित है। बीभत्स रसमें रुधिरप्रवाहादि विभाव, मरण मूर्छा आदि व्यभिचारी तथा मुख सिकोड़ना १. नाट्यशास्त्रम्, वाराणसी, १९२५, षष्ठ अध्याय, ३१ कारिकासे आगेका गद्य, पृ. सं.७१। २. वही, षष्ठ अध्याय, पद्य ३२-३८ । ३. नाट्यशाख, वाराणसी, १६२५, ६-३६, पृ. ७२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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