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________________ २८६ . अलंकारचिन्तामणिः [५।२१७ सुखं न संगच्छते इति पदद्वयप्रयोगे दोषनिश्चयाद् वाक्यदोष एव, न पददोषः । सम्पूर्वस्य गम्धातोरात्मनेपदत्वे कर्मकारकस्याग्रहणीय'मानत्वात् । अनन्वयमिहोक्तं यत्तत्संबन्धच्युतं यथा। पाठं शिला घटो राजा प्रतापो भूमिरन्धकः ॥२१७।। वक्तव्यं यत्र यन्नोक्तं वाच्यच्युतमिदं यथा । मतं जीवितमस्माकं दुश्चेष्टावशवर्तिनाम् ।।२१८॥ दुश्चेष्टावशतिनामपीति अपिशब्दे वक्तव्ये नोक्तः । संध्यभावो विरूपो वा संधिच्युतमिदं यथा । विद्या इह अमुत्र त्वां पातुं स्वेष्टमुपे जिनः ॥२१९।। सुसमर्थो हर्षायाभवदित्यर्थे स्वेष्ट इति संधिविरूपता। मिथोऽन्वये विभक्तीनां कीर्णे व्याकीर्ण मिष्यते । पुरोरुक्त्यमृतं पश्यन् पिबन्नाननमास्थितः ।।२२०॥ (७) सम्बन्धच्युत-पद्यमें समागत पदोंका परस्पर अन्वय जहाँ नहीं कहा गया हो वहाँ सम्बन्धच्युत नामक दोष होता है। यथा-पीठ, शिला, घट, राजा, प्रताप, भूमि, अन्धक इन शब्दोंका परस्पर अन्वय नहीं है ॥२१७॥ (6) अर्थच्युत-जिस पद्यमें आवश्यक वक्तव्य न कहा गया हो उसे वाच्यच्युत या अर्थच्युत कहते हैं। यथा--दुष्टचेष्टाके अधीन हमलोगोंका जीवन माना गया है ॥२१८॥ यहाँ दुष्ट चेष्टाके वशमें रहनेवालेके पश्चात् अपि शब्दका प्रयोग करना चाहिए था, पर उस का प्रयोग नहीं किया गया है, अतः अर्थच्युत दोष है। (९) सन्धिच्युत-सन्धिका अभाव या विरूप सन्धिको सन्धिच्युत दोष कहते हैं। यथा--'विद्या इह' में सन्धिका अभाव है। यहाँ इस लोक और परलोकमें विद्या तुम्हारी रक्षा करे । जिन भगवान् आनन्ददायक हैं ॥२१९॥ ___ अच्छी तरहसे समर्थ आनन्दके लिए हुआ इस अर्थमें यहाँ 'स्वेष्ट' शब्द है, अतः 'स्वेष्ट' में सन्धि विरूपता है तथा 'विद्या इह अमुत्र' में सन्धिका अभाव है । (10) व्याकोर्ण-विभक्तियोंके आपसमें अन्वय व्याप्त रहनेपर व्याकोर्ण नामका दोष होता है । यथा-पुरुके उक्तिरूपी पीयूषको पोते तथा पुरुके मुखको देखते हुए रह गये ॥२२०॥ १. मानीयमानत्वात् -ख । २. पान्तु स्वेष्टमुदे जिनः -क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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