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________________ २८५ -२१६] पञ्चमः परिच्छेदः २८५ शब्दो वाऽर्थोऽक्रमो यत्र क्रमभ्रष्टमिदं यथा । सुप्त्वा स्नात्वा गुरुं नत्वा जिनं कश्चित् प्रवन्दते ॥२१४॥ अर्थक्रमः। गम्भीरिमोन्नतिद्वन्द्वे मग्नौ मेरूदधी अपि । शाब्दोऽक्रमः। गम्भीरत्वे उदधिरोन्नत्ये मेरुरिति शब्दक्रमाभावात् । गम्भीरिमौन्नत्ययोर्मेरूदधी इति यथौचित्यमर्थान्वये सिद्धे अर्थविरीधो न किन्तु शाब्द एव क्रमभङ्गः। क्रियापदेन हीनं यदशरीरं मतं यथा। भीतानरीन् रथाङ्गेशः षट्खण्डपरिरक्षकः ॥२१५॥ अबद्धशब्दवाक्यं यच्छब्दहीनमिदं यथा। सुखं संगच्छते नात्र विषयान्ध्याच्च्युतव्रताः॥२१६।। (४) क्रमच्युत-जिस पद्य में शब्द या अर्थ क्रमसे न हों उसमें क्रमच्युत दोष होता है। यथा-कोई सोकर, स्नानकर, गुरुको प्रणाम कर जिनेश्वरको वन्दना करता है ॥२१४॥ यहाँ अर्थका क्रमभंग है। चक्रवर्ती भरतको गम्भीरता और उन्नति इन दोनोंमें मेरुपर्वत और समुद्र दोनों मग्न हो गये। यहाँ शब्द क्रमच्युत है । गम्भीरतामें समुद्र और ऊँचाईमें मेरु इस प्रकारका क्रम होना चाहिए था । 'गम्भीरिमा' और औन्नत्यमें मेरु और उदधिका यथायोग्य अर्थ में अन्वय करनेपर दोष नहीं है इसलिए अर्थ विरोध भी नहीं है। अतः यह शब्द सम्बन्धी ही क्रमभंग है। (५) अंगच्युत-जो पद्य क्रिया पदसे रहित हो उसमें अंगच्युत दोष मानते हैं । यथा-षट्खण्ड भूमिके संरक्षक चक्रवर्ती भरत डरे हुए शत्रुओंको ॥२१५।। (६) शब्दच्युत-जो अबद्ध शब्द वाला वाक्य हो उसे शब्दच्युत दोष कहते हैं । यथा-विषयान्धतासे नष्ट नियमवाला मनुष्य इस संसारमें सुख नहीं पाता है ॥२१६।। 'सुखं न संगच्छते' इन दो पदों के प्रयोगमें दोष निश्चयके कारण वाक्य दोष ही है, पददोष नहीं। सम् पूर्वक/ गम् धातुके आत्मनेपद होने में कर्मकारकका ग्रहण नहीं होता। १. वार्थक्रमो -ख । २. शाब्दोऽक्रमः ख प्रतो नास्ति । ३. गम्भोरिमोन्नत्य.."ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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