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________________ -१४९ ] पञ्चमः परिच्छेदः २६५ अन्योन्यमिति कोऽर्थः ? सामान्यस्य विशेषतया परिवृत्तितः विशेषस्य तु सामान्यरूपतया । अयमेक एव भेदः, परिवृत्तिद्वयं तु हेतुवशात् । तत्र जलानि धीयन्तेऽस्मिन्निति योगस्य सामान्याश्रयत्वेऽपि विशेषपरिवृत्त्या समुद्र एव न तटाकादिः । जलजशब्देन तु पद्ममेव न शाल्यादिः । द्वितीयपरिवत्ति वक्ति । वारिधारणविशेषस्य तु सामान्यरूपतया परिवृत्ती वारिधिशब्देन समुद्रमात्रमुच्यते । दुग्धवारिधिरित्यत्र यदि दुग्धमयस्तत्कथं वारिधिरिति न विरोधदोषावकाशः, एवं यदि स्वर्गप्रभवस्तत्कथं भूरूह इति। सुबन्तं पदं पदम् । पदव्यूहोऽर्थसमाप्तितो वाक्यम् । उदाहरणम् कैलासाद्रौ मुनीन्द्रः पुरुरपदुरितो मुक्तिमाप प्रेणूतः । अर्थसमाप्तियुक्तार्थता मुक्तपदव्यूहः खण्डवाक्यम् । अर्थसमाप्तियुक्त इत्यनेन वाक्यनिरासः। युक्तार्थतामुक्त इत्यनेन समासपदनिरासः समासोपयुक्तः परस्परान्वयविशेषो युक्तार्थता । उदाहरणम्-देवानां प्रिय इति एतच्च पदमलुक्समासादेकमेव न खण्डवाक्यम् । चम्पायां वासुपूज्य इत्यादोनि खण्डवाक्यानि मुक्ति 'अन्योन्यम्' इसका क्या अर्थ है ? सामान्यका विशेषसे तथा विशेषका सामान्यसे परिवर्तन। यह एक ही भेद है, किन्तु हेतुके कारण दो तरहका परिवर्तन है। जहाँ 'जलानि धीयन्ते अस्मिन्' जल जिसमें रखा जाता है, इस योगका सामान्य आश्रय होनेपर भी विशेष परिवर्तनसे समुद्रका ही बोधक होता है, तटादिका नहीं। जलज शब्दसे कमलका ही बोध होता है, धान्य इत्यादिका नहीं। द्वितीय परिवर्तनके अनुसारजल-धारण विशेषका सामान्य रूपसे परिवर्तन करनेपर वारिधि शब्दसे केवल समुद्रको कहा जाता है । 'दुग्धवारिधि' इस शब्द से यदि वह दुग्धमय है तो वारिधि कैसे होगा, इस विरोधका अवसर नहीं। इसी प्रकार यदि वह स्वर्गमें उत्पन्न है तो भूरुह-पृथ्वी में उत्पन्न कैसे होगा। ___ सुङ् जिसके अन्तमें हो उसे पद कहते हैं। अर्थकी समाप्तिसे पदसमूहको वाक्य कहते हैं। उदाहरण प्रशंसित, पापरहित मुनीन्द्र उस आदि तीर्थंकर पुरुदेवने कैलाश पर्वतपर मुक्तिको प्राप्त किया। अर्थ-समाप्ति युक्त अर्थतासे रहित पदसमूहको खण्डवाक्य कहते हैं । अर्थ-समाप्तिसे रहित इस कथनसे वाक्य लक्षण में दोष नहीं हुआ। युक्तार्थतासे रहित इस कथनसे समासपदमें खण्डवाक्यका लक्षण घटित नहीं हुआ। समासके उपयोगी परस्परमें अन्वय विशेषको युक्तार्थता कहते हैं। यथा-'देवानां प्रियः' यह पद अलुक् समास होनेके कारण एक ही है, खण्डवाक्य नहीं है । 'चम्पामें वासुपूज्य' इत्यादि खण्डवाक्य 'मुक्ति १. परिवृत्तिः-क-ख । २. प्रणातः-ख । ३. मुक्तः पदसमूहः--ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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