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________________ २३० अलंकारचिन्तामणिः [ ५।१८ एषां स्वरूपमुदाहरणं चरोमाञ्चः पुलकोत्पत्तिः सुखाद्यतिशयाद्यथा। पुलकव्याजतस्तं सा द्रष्टुं सर्वाङ्गदृकत्वभूत् ॥१८॥ वैस्वयं तद्गदालापः प्रमोदाधुद्भवो यथा । 'रत्यङ्गे गद्गदोक्त्यर्थः स्मरेणापि न निश्चितः ॥१९॥ रत्यातपादिसंजातः स्वेदस्तनुजलोद्गमः । स्मरेण कोणंपुष्पा वा तदङ्गे धर्मबिन्दवः ॥२०॥ भीतिरागादिना स्तम्भः कायनिष्क्रियता यथा। चक्रिलग्नदृशः कान्ताः प्रतिमा इव भित्तिगाः ॥२१॥ सुखदुःखादिनाक्षाणां मूर्च्छनं प्रलयो दृढम् । चक्रयालोकनतः स्त्रीणां मूर्च्छतीन्द्रियसंचयः ॥२२॥ साहित्यदर्पणमें आचार्य विश्वनाथ ने (१) स्तम्भ (२) स्वेद (३) रोमांच (४) स्वरभंग (५) वेपथु (६) वैवर्ण्य (७) अश्रु और (८) लय इन आठ सात्त्विक भावोंका उल्लेख किया है। सात्त्विक भावके भेदोंका स्वरूप रोमांच-हर्ष, विस्मय, भय आदिके कारण रोंगटोंके खड़े होनेको रोमांच कहते हैं । यथा-वह नायिका उस नायकको देखनेके लिए रोमांचके बहाने सर्वांगमें नयनमय हो गयी अर्थात् उसके शरीरमें रोंगटे नहीं खड़े हुए, अपितु उसका सारा शरीर ही नयनमय हो गया ॥१८॥ __वैस्वयं-अत्यधिक आनन्द, हर्ष, पीड़ा आदिके कारण उत्पन्न गद्गद आलापको वैस्वर्य कहते हैं । जैसे-सुरतिके समय होनेवाली गद्गद वाणीका अर्थ तो कामदेव भी नहीं जान सका ॥१९॥ . स्वेद-रतिप्रसंग, आतप (धूप), परिश्रम आदिके कारण शरीरसे निकल पड़नेवाले जलको स्वेद कहते हैं । जैसे-उस नायिकाके अंगोंमें कामदेवने फूल बिछा दिये अथवा उसके अंगों में पसीनाके जलकण हैं ॥२०॥ स्तम्भ-भय, राग, हर्ष आदिके कारण शरीरके व्यापारोंके रुक जानेको स्तम्भ कहते है । जैसे-चक्रवर्ती भरतके शरीरकी ओर दृष्टिपात करती हुई रमणियाँ भित्तिपर उत्कीर्ण मूर्तियोंके समान सुशोभित हुई ।।२१।। लय-सुख या दुःख इत्यादिके कारण इन्द्रियोंको मुग्धताको प्रलय या लय कहते हैं । यथा-चक्रवर्ती भरतके अवलोकन-मात्रसे स्त्रियोंकी इन्द्रियाँ मोहित हो गयीं ॥२२॥ १. गद्गदालाप-ख । २. रत्यन्ते-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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