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पञ्चमः परिच्छेदः 'दोषरोषातिदुःखाद्यैरश्रुनेत्रोदकं यथा। वासगेहं गते नाथे स्नातानन्दाश्रुभिः सती ॥२३॥ भीरोषतोषणादिभ्यः कम्पोऽङ्गोत्कम्पनं यथा । चक्रिभीतेऽब्धिगे शत्रौ तत्कम्पात् स च कम्पते ॥२४॥ मदरोषविषादादेवैवण्यं भिन्नवर्णता। . चक्रय भासमानेऽरेरास्यं ध्वान्तग्रहं व्यभात् ॥२५॥ उद्भवन्त्यः प्रणश्यन्त्यो वीचयोऽब्धो तथात्मनि । बहुधा संचरन्तो ये भावाः संचारिणो मताः॥२६॥ भी-शंका-ग्लानि-चिन्ता-श्रम-धृति-जडता-गर्व निर्वेददैन्यक्रोधेा-हर्षितीग्रय स्मृतिमरणमथोद्बोधनिद्रावहित्थाः । तर्कहयावेगमोहाः सुमतिरलसता भ्रान्त्यपस्माररोगाः सुप्त्योत्सुक्ये विषादो भवति चपलता ते त्रयस्त्रिशदुक्ताः ॥२७॥
अश्रु-दोष, रोष तथा अति दुःख इत्यादिसे उत्पन्न नेत्रजलको अश्रु कहते हैं । यथा-स्वामीके विलास भवन में जानेपर पतिव्रता आनन्दके अश्रुओंसे नहा गयी ॥२३॥
कम्प-भय, क्रोध, सन्तोष इत्यादिसे उत्पन्न होनेवाली शरीरकी कंपकंपीको कम्प कहते हैं । यथा-- चक्रवर्ती भरतके भयके मारे उनके शत्रु समुद्र में डूब गये और उनके काँपनेसे समुद्र का जल भो कम्पित होने लगा ॥२४॥
वैवण्य-मद, क्रोध, दुःख और आश्चर्य आदिके कारण मुखके वर्णमें विकृति हो जानेको वैवर्ण्य कहते हैं। यथा-चक्रवर्ती रूपी सूर्यके देदीप्यमान होनेपर शत्रुका मुख अन्धकारसे ग्रसित होनेके समान काला प्रतीत हुआ ॥२५॥ संचारी भावका स्वरूप
जिस प्रकार समुद्र में लहरें उत्पन्न होती हैं और नष्ट हो जाती हैं उसी प्रकार आत्मामें अनेक तरहसे संचरण करनेवाले भाव संचारी भाव कहलाते हैं ॥२६॥
संचारी भावोंको व्यभिचारी भाव भी कहा जाता है। ये स्थायी भावके अनुकूल रहते हुए भी कभी प्रकट और कभी विलीन हो जाते हैं। ये स्थायी भावके सहायक और पोषक होने के कारण अनुकूलतासे व्याप्त रहते हैं। इनके व्यभिचारी भाव कहे जानेका कारण यही है कि एक ही भाव भिन्न-भिन्न रसोंके साथ पाया जाता है। संचारीमावोंके भेद
(१) भय (२) शंका (३) ग्लानि (४) श्रम (५) धृति (६) जड़ता (७) गर्व (८) निर्वेद (९) दैन्य (१०) क्रोध (११) ईर्ष्या (१२) हर्ष (१३) स्मृति (१४) मरण १. तोषरोषादि-क। तोषरोषाति-ख । २. ध्वान्तगृहम्-क-ख। ३. प्रणश्यन्त्यै-ख । ४. मदोद्भेदनिद्रा-ख।
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