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________________ २२० अलंकारचिन्तामणिः [४॥३३६उपमारसवदलंकारयोः संसृष्टिः । शब्दार्थोभयसंसृष्टिर्यथाएतच्चित्रं क्षितेरेव घातकोऽपि प्रपादकः । भूतनेत्रपतेऽस्येव शोतलोऽपि च पावकः॥३३६।। घातकोऽपि हिंसकोऽपि पक्षे घातिकर्मणां विनाशकः । प्रपादकः प्रपालकः । भूतानां जीवानां नेत्रं चक्षुः तस्य संबोधनम् । शीतलो भव्याह्लादकः दशमतीर्थंकरो वा! 'अग्निः पवित्रश्च । एतद्वचनं भूलोकस्य विरुद्धमेव परिहारपक्षे क्षितेरेव न तु विदुषः । अत्र मुरजबन्धलक्षणचित्रालंकारविरोधालंकारयोः संसृष्टिः।। क्षोरनोरवदन्योन्यसंबन्धा यत्र भाषिताः। उक्तालंकृतयः सोऽयं संकरः कथितो यथा ॥३३७।। सजातीय विजातोयाङ्गाङ्गोभावद्वयेन सः । एकशब्दप्रवेशेन संदेहेनेति च त्रिधा ॥३३८॥ शब्दार्थोमयस सृष्टिका उदाहरण __ पृथिवीके घातक होनेपर भी पालक, हे प्राणिमात्रके नयन ! हे स्वामि पावकअग्नि अर्थात् पवित्र, शीतल-विरोध परिहारपक्ष में शीतलनाथ तीर्थंकर, आप हैं; यह विलक्षण बात है ॥३३६॥ घातक:-हिंसक होनेपर, पक्षमें-धातिया कर्मों के विनाशक, प्रपादक:पालनकर्ता । हे प्राणियोंके नेत्र ! शीतल:-भव्यजनोंके आह्लादक, दशम तीर्थंकर । पावकः-अग्नि अथवा पवित्र । यह वचन भूलोकके लिए विरुद्ध ही है, विरोध परिहारपक्षमें क्षितिका हो, विद्वानोंका नहीं। आशय यह है कि शीतलनाथ तीर्थंकर घातियाकर्मोके विनाशक विश्वके पालनकर्ता, भव्यजीवोंके आह्लादक एवं पवित्र हैं। यहाँ मुरजबन्ध लक्षण चित्रालंकार और विरोधालंकारको संसृष्टि है । संकर अलंकारका स्वरूप जहाँ रूपकादि पूर्वकथित अलंकार दूध और पानीके समान परस्पर एक दूसरेसे मिले हुए वणित हों, वहाँ संकर नामक अलंकार होता है ॥३३७।। संकरके भेद वह संकर सजातीय-विजातीय-अंगांगिभाव, एक शब्दप्रवेश और सन्देहके भेदसे तीन प्रकारका होता है ।।३३८॥ १. पावकः अग्निः पवित्रश्च -क-ख । २. विजातीयाङ्गाङ्गिभाव....-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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