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________________ -३३५ ] चतुर्थः परिच्छेदः २१९ संसृष्टिसंकरयोः पृथक्त्वं नेच्छन्ति । इह तु एतयोः पृथक् चारुत्वातिशयकारणत्वेन पूर्वोक्तालंकारेभ्यः पार्थक्यम् । 'तिलतण्डुलवच्छ्लेषा रूपकाद्या अलंक्रिया । यत्रान्योन्यं च संसृष्टिः शब्दार्थोभयतस्त्रिधा ।।३३३।। तिलतण्डुलन्यायेन रूपकादयो यत्र परस्परं संबद्धा भवन्ति सा संसृष्टिः । तत्र शब्दालंकारसंसृष्टिर्यथा वन्दे चारुरुचां देव भो वियाततया विभो। त्वामजेय यजेमत्वातमितान्त ततामित ॥३३४॥ अत्र चित्रयमकयोः संसृष्टिः । अर्थालंकारसंसृष्टिर्यथारहस्सु वस्त्राहरणे प्रवृत्ताः सहासगर्जाः क्षितिपालवध्वाः । सकोपकन्दर्पधनुःप्रमुक्तशरोघहुंकाररवा इवाभुः ॥३३५। और संकरको पृथक्ता नहीं। यहाँ पृथक् चारुत्वकी अतिशयताके कारण पूर्वोक्त अलंकारोंकी अपेक्षा संसृष्टि और संकरकी भिन्नता है । संसृष्टि अलंकारका स्वरूप और भेद जहां तिल-तण्डुल न्यायसे रूपकादि अलंकारोंकी श्लिष्ट प्रतीति होती है, वहाँ संसृष्टि अलंकार होता है। इसके शब्द, अर्थ और शब्दार्थनिष्ठके भेदसे तीन भेद हैं ॥३३३॥ तिल-तण्डुल न्यायसे रूपकादि अलंकार जहाँ परस्पर सम्बद्ध हों, वहाँ संसृष्टि होता है। शब्दालंकार संसृष्टिका उदाहरण हे अमित साहसित् ! व्यापक सौन्दर्यधारक देव ! मैं आपकी वन्दना करता हूँ एवं हे अज्ञानान्धकारके विनाशक, अज्ञेय, विराट् देव ! मैं तुम्हारी अर्चना करता हूँ ॥३३४॥ यहाँ चित्र और यमककी संसृष्टि है। अर्थालंकार संसृष्टिका उदाहरण एकान्तमें रानियोंके पटके आकर्षणमें प्रवृत्त हास्ययुक्त गर्जन शब्द क्रुद्ध कामके धनुषके छोड़े हुए बाण जालके हुंकार शब्दके समान सुशोभित हुए ॥३३५॥ १. तिलतण्डुलवच्छ्लिष्टा-क। २. कप्रती तमितान्तततामित । खप्रतौ तमितान्तततमित। ३. -खप्रती-अर्थालंकारसंसृष्टिर्यथा इति वाक्यं नास्ति। ४. वस्त्राभरणे -ख । ५. सहासगज्जा -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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