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________________ २१२ अलंकारचिन्तामणिः [४१३०९अत्र शृङ्गाररसस्य पोषणम् । एवं रसान्तरेष्वपि योज्यम् । यत्रात्मश्लाघनारोहो यथा सोर्जस्वलंक्रिया । प्रत्यनोकं रिपुध्वंसाशक्ती तत्सङ्गिदूषणम् ॥३०९।। यत्र समर्थस्य प्रतिपक्षस्य 'निराकरणासामर्थ्य तत्संबन्धिनिराकरणं प्रत्यनीकालंकारः सः। यत्तेजोऽनलदग्धनाकपदिगाद्याब्धिस्थदेवाधिपा यत्पादद्युतिवारिसिक्तशमिता मेघेश्वराख्यां गतः । तद्दत्तां मम गजितेन पतिता भूमौ कुलक्ष्माभृतश्चक्रेट्सन्निभमेरुमात्ररहिता श्लाघान्यघातेन का ॥३१०॥ अत्र जयकुमारस्यात्मश्लाघाः । चक्रिकीर्तिपरिस्फूति जितस्वमहिमा शशी। तत्संबन्धिमहापद्म पद्माकरमपास्यति ॥३१॥ चक्रिसंबन्धिनी महालक्ष्मीर्यस्य अथवा महापद्मा निधयः। पक्षे अम्बुजानि । तवास्यादितुल्यपङ्कजानां सत्संबन्धित्वं वा । यहाँ शृंगाररसका पोषण हुआ है। इसी प्रकार अन्य रसोंमें भी योजना कर लेनी चाहिए। ऊर्जस्वी और प्रत्यनीक अलंकारोंके लक्षण जहां अपनी प्रशंसा अत्यधिक की जाये, वहां ऊर्जस्वी और जहां शत्रुके वधमें असमर्थ रहनेपर संगोको दोष दिया जाये, वहाँ प्रत्यनीक अलंकार होते हैं ॥३०९॥ उदाहरण जिसको प्रतापरूपी अग्निसे जले हुए देवगण पूर्वी समुद्र में स्थित हैं; जिसके पैरकी कान्तिरूपी जलके सिंचनसे शान्त होनेके कारण मेघेश्वरकी संज्ञासे विभूषित है तथा गर्जनसे चक्रवर्तीके समान सुमेरुसे भिन्न अन्य सभी पर्वत भूमिपर गिर गये हैं, अतः सुमेरुको खण्डित करें, अन्यके हनन करने में क्या वीरता है ? ॥३१०॥ यहाँ जयकुमारकी आत्मप्रशंसा है। चक्रवर्ती भरतकी कीर्तिकी महती दीप्तिसे पराजित महत्त्ववाला चन्द्रमा उससे सम्बद्ध महालक्ष्मीवाले कमल समूहको दूर कर देगा ।।३११॥ चक्रवर्ती सम्बन्धी महालक्ष्मी अथवा महापद्मनिधिको, पक्षान्तरमें कमलोंको, तुम्हारे मुखके तुल्य पंकजोंको अथवा उनसे सम्बद्धको । १. निराकरणानामर्थे तत्स....-ख । २. तदास्यादि-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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