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________________ -३०८] चतुर्थः परिच्छेदः २११ संभवः । न चेयं 'स्वभावोक्तिरस्या विषयस्याद्भुतत्वेन भाव्यत्वाभावात् । नाप्युत्प्रेक्षा भौविनोः प्रत्यक्षत्वेनाध्यवसायाभावात् । नेयं रसवदाद्यलंकृतिः अत्र विभावानुभावाद्यनुसंधानेन रसादेर्भाव्यत्वेन अद्भुतत्वाभावात् । भावनया अभ्रान्तिनिरूपणान्न भ्रान्तिमानपि । यत्रेष्टतरवस्तूक्तिः सा प्रेयोऽलंकृतिर्यथा। शृङ्गारादिरसोत्पुष्टियंत्र तद्रसवद् यथा ॥३०६।। भो भव्याः पिबतादराच्छुतिपुटैः कल्याणवार्तासुधामादिब्रह्मजिनेशिनः सुरगिरौ जन्माभिषेकोत्सवः। जातस्तेन सुरालयोऽजनि गिरिः स्वर्गायिता भूरपि देवाः पावनमूर्तयो जनवराः सर्वे कृतार्थीकृताः ॥३०७॥ विश्वलोकप्रियतरस्य पुरुजिनजन्माभिषेकस्य प्रतिपादनम् । रहस्सु वस्त्राहरणे प्रवृत्ताः सहासगर्जाः क्षितिपालवध्वाः । सकोपकन्दर्पधनुःप्रमुक्तशरौघहुङ्काररवा इवाभुः ॥३०८॥ इस वर्णनमें स्वभावोक्ति भी नहीं है, क्योंकि इस विषयके अद्भुत होनेसे भाव्यत्वका सर्वथा अभाव है। यहाँ उत्प्रेक्षा भी नहीं है, क्योंकि भावी वस्तुओंका प्रत्यक्षत्वके साथ अध्यवसाय नहीं है । रसवद् अलंकार भी नहीं है, क्योंकि विभाव, अनुभाव इत्यादिके अनुसन्धानसे रसादिकी भाव्यताके कारण अद्भुतता नहीं है। भावनासे अभ्रान्तिका निरूपण होने के कारण भ्रान्तिमान् भी नहीं है। प्रेयस और रसवत् अलंकारोंके लक्षण जिसमें अत्यन्त अभिमत वस्तुका कयन हो उसे प्रेयस् अलंकार और जिसमें शृंगारादि रसको विशेष पुष्टिका वर्णन हो उसे रसवद् अलंकार कहते हैं ॥३०६॥ प्रेयस्का उदाहरण हे भव्यजीवो ! आदिब्रह्मा जिनेश्वर भगवान्को कल्याणकारी उपदेशरूपी अमृतका आदरपूर्वक कानोंसे पान कीजिए। सुमेरु पर्वतपर उनका जन्माभिषेक हुआ इसलिए वह पर्वत भी देवताओंका निवासस्थान हो गया, पृथिवी भी स्वर्गतुल्य हो गयी तथा देव और मानव सभी पवित्र एवं सफल जीवन बन गये ॥३०७॥ ___ यहाँ सम्पूर्ण लोकके अत्यन्त प्रिय पुरु जिनके अभिषेकका प्रतिपादन किया गया है। रसवद् अलंकारका लक्षण __एकान्त में रानियों के वस्त्रोंके आकर्षण में प्रवृत्त, हास्ययुक्त शब्द क्रुद्ध कामके धनुषसे छोड़े हुए बाण के समूहमें हुंकार शब्दके समान सुशोभित हुए ॥३०८॥ १. स्वभावोक्तिरस्याम् -ख । २. भूतभाविनो:-ख । ३. भावनाया अभ्रान्तिरूपत्वान्न भ्रान्तिमानपि-क-ख । ४. जिनवरा:-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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