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________________ २०९ -३०२] ___ चतुर्थः परिच्छेदः अनेकेषां कारणानामहमहमिकया यत्रैकं कार्य साधयितुमुद्यमः सोऽपि समुच्चय एव । यथा शौचं सत्यं क्षमा त्यागः प्रागल्भ्यं मृदुतार्जवम् । वृत्तं चारुविवेकित्वं दयां पुष्णन्ति चक्रिणः ॥३०॥ शौचादीनां कृपासंपादने प्रत्येकं कारणत्वेऽपि युगपदहमहमिकया संबन्धः । कार्यसिद्धयर्थमेकस्मिन् हेतौ यत्र प्रवृत्तिके । काकतालीयवृत्तोऽस्य समाधिरुदितो यथा ॥३०१।। कार्यसिद्धये यत्रैकस्मिन् कारणे वृत्ते काकतालीयन्यायेन कारणमन्यदागत्य तत्कायं सुष्ठु करोति स समाधिः । चक्रयाश्लेषधियं कतु विस्रस्तकुचवाससि । वध्वां पारावतस्तावच्चुकूज मणितध्वनिम् ॥३०२॥ तल्पास्थितचक्रिणः परिरम्भणधीजननाथं कान्तया कुचवस्त्रविस्र सने प्रवर्तिते काकतालीयतया जातेन पारावतध्वनिना आलिङ्गनलक्षणकार्यस्य सुकरत्वम् । लोकन्यायमूलालंकाराः कथ्यन्त अनेक कारणोंके रहनेपर 'मैं पहले, मैं पहले' इस प्रकारको क्रियासे एक कार्यको सिद्ध करने के लिए जिसमें प्रयास दिखलाई पड़े, वह भी समुच्चयालंकार है । यथा पवित्रता, सत्य, क्षमा, दान, प्रगल्भता, मृदुता, सरलता, सुन्दरचरित्र और विवेक आदि गुण चक्रवर्तीकी दयाको पुष्ट करते हैं ॥३०॥ कृपा सम्पादनमें शौचादि सभी गुण कारण होनेपर भी एक साथ 'मैं पहले, मैं . पहले' इस क्रियासे सम्बन्ध है। समाधि अलंकारका लक्षण जिसमें कार्यसिद्धिके लिए एक हेतुके प्रवृत्त होनेपर अचानक दूसरे ही हेतुसे सुन्दरता पूर्वक कार्य सम्पन्न हो जाये, वहाँ समाधि अलंकार होता है ॥३०१।। उदाहरण चक्रवर्ती भरतमें आलिंगन विषयक बुद्धि उत्पन्न करनेके हेतु नायिकाके वक्षस्थलका वस्त्र हट हो रहा था कि कबूतर मधुर ध्वनिसे कूज उठा ॥३०२॥ पलंगपर स्थित चक्रीमें आलिंगन विषयक भावना उत्पन्न करनेके लिए कान्ताके द्वारा वक्षस्थलका वस्त्र हटाया जा रहा था कि अचानक कबूतरके शब्दने आलिंगन भावनाको सहजमें उत्पन्न कर दिया । अतः यहाँ समाधि अलंकार है। अब लोकन्याय मूलक अलंकारोंका निरूपण करते हैं२७ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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