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________________ -२९५ ] चतुर्थः परिच्छेदः २०७ धर्मोदितोदितत्वमस्ति किं? किं जैनाश्च संपत्तिभाजः 'सन्तीति ? प्रश्न उन्नीयते । अथ वाक्यन्यायमूलप्रस्तावेन विकल्पः प्रस्तूयतेविरोधे तु द्वयोर्यत्र तुल्यमानविशिष्टयोः । औपम्याद्युगपत्प्राप्तौ विकल्पालंकृतिर्यथा ।।२९३।। आज्ञा मन्दारमालास्य ध्रियतां मनि भो नृपाः। खड्गजाताग्निसंदीप्तज्वालामालाथवा ध्रुवम् ॥२९४।। चक्रिणि प्रभवति भूपानां संधिविग्रहनामाभ्यां तुल्यप्रमाणाभ्यामाज्ञासुमधारित्वकृपणाग्निज्वालामालाधारित्वे युगपदेव प्राप्ते विरोधाद्योगपद्यासंभवे विकल्पः । एतत्प्रतिपक्षमतः समुच्चय उच्यते क्रियाणां चामलत्वादिगुणानां यगपत्ततः। अवस्थानं भवेद् यत्र सोऽलंकारः समुच्चयः ।।२९५।। श्रीवीर प्रभु के जन्म लेनेपर धर्मादिका अभ्युदय होता है क्या ? क्या जैन सम्पत्तिशाली है ? इन प्रश्नोंकी कल्पना की जाती है । ___ इसके पश्चात् वाक्यन्यायके मूल प्रस्तावानुसार विकल्पालंकारको प्रस्तुत करते हैं। विकल्पालंकार का लक्षण __जहां सम प्रमाणवाले उपमानोपमेयके औपम्यादिको एक साथ प्राप्ति होनेपर विरोध प्रतीत होता हो, वहाँ विकल्प नामका अलंकार होता है ॥२९३॥ उदाहरण हे राजाओ! इस चक्रवर्ती राजाकी आज्ञारूपी मन्दारपुष्पको मालाको अपने मस्तकपर धारण करो अथवा इसकी तलवारसे उत्पन्न अग्निसे प्रज्वलित ज्वालाकी पंक्तिको मस्तकपर धारण करो ॥२९४॥ चक्रवर्तीके समर्थ रहनेपर राजाओंके लिए तुल्य प्रमाणवाले सन्धि और विग्रहसे आज्ञारूपी पुष्पमालाको धारण करना तथा अग्निकी ज्वालामालाको धारण करना एक साथ प्राप्त है। विरोधी होने के कारण दोनों एक साथ हो नहीं सकते, सन्धि और विग्रह दोनों विरोधी हैं, अतः यहाँ विकल्पालंकार है। विकल्पको विपरीत स्थितिवाले समुच्चय अलंकारका लक्षण निरूपित किया जाता है। समुच्चयका लक्षण जिसमें किया तथा अमलत्यादि गुणोंका साथ-साथ वर्णन हो, उसे समुच्चय अलंकार कहते हैं ।।२९५।। १. सन्त्विति-ख । २. अथ....प्रस्तूयते इति वाक्यं खप्रतो नास्ति । ३. नामभ्याम् -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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