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________________ -२८९ ] चतुर्थः परिच्छेदः २०५ अप्रश्नपूर्वा शाब्दवा यथागोष्ठी विद्वत्सु न स्त्रीषु दया सत्त्वे न चैनसि । चिन्ता तत्त्वे न कामादौ भरताख्यरथाङ्गिनः ।।२८७।। अर्थवाप्रश्नपूर्वा यथापरस्त्रीषु स जात्यन्धो निष्कार्येषु सदालसः । मकः परापवादेषु पङ्गः प्राणिवधेषु च ।।२८८॥ श्लेषेणाऽपि चारुत्वातिशयरूपा परिसंख्या यथायत्रार्तवत्त्वं फलिताटवीषु, पलाशिताद्रौ कुसुमेऽपरागः। निमित्तमात्रे पिशुनत्वमासोन्निरोष्ठ्यकाव्येष्वपवादिता च ॥२८९॥ ऋतुःप्राप्त आसामटवोनाम् आर्तवास्तासां भावः। आर्तवतो दुःखवतो भावश्च । द्रौद्रमे पर्णवत्ता मांसभक्षित्वं च । परागः पुष्परजः अपरागः, सन्तोषाभावः परेषामरागोऽपराधो वा। शुभाशुभकार्यसूचकत्वं कर्णेजपत्वं च पश्च वश्च अप्रश्न पूर्वा शाब्दवा परिसंख्याका उदाहरण चक्रवर्ती भरतको गोष्ठी विद्वानोंमें होती थी, स्त्रियों में नहीं। उनकी दया प्राणियोंपर होती थी, पापमें नहीं। उनका, चिन्तन सत्यके अन्वेषणमें होता था, कामादि विषयोंके सम्बन्धमें नहीं ।।२८७॥ अर्थवा अप्रश्नपूर्वा परिसंख्याका उदाहरण ___ वह परस्त्रीके अवलोकनमें जात्यन्ध, अनुचित कार्य करने में सर्वदा आलसी, दूसरोंको निन्दा करने में मूक और प्राणियोंका वध करने में पंगु था ॥२८८॥ श्लेषजन्य चारुत्वातिशयरूपा परिसंख्या जहाँ फले हुए जंगलोंमें ऋतुमत्ता थी, कोई आतंव-दुःखी नहीं था। पलाशवृक्षः या पत्तोंमें हो अधिकता थी, कोई पलाश-मांसाहारी नहीं था। पुण्योंमें ही रक्तिमाका कभी अभाव था, किसी व्यक्तिमें अनुरागका अभाव नहीं था। केवल निमित्तमें शुभाशुभ फल सूचकता थो, किसी व्यक्तिमें चुगलखोरीका भाव नहीं था। ओष्ठ्य रहित वर्गवाले काव्योंमें पवर्गका अभाव था, किसी व्यक्ति में लोकापवाद नहीं था ॥२८९॥ - ऋतु प्राप्त है जिन वनोंमें, उन्हें मार्तव और उनके कर्मविशेषको आर्तवत्त्व कहते हैं । दुःखोके कर्मविशेषको भी आर्तवत्व कहते हैं । द्रो-वृक्षमें पलाशिता-पत्रसमूह था, और मांस भक्षित्व । परागः-पुष्पोंका रज । अपरागः-सन्तोषका अभाव अथवा दूसरोंके अपराधका अभाव । निमित्तम्-शुभाशुभ कार्य सूचकता या चुगलखोरी । १. खप्रती 5 अकारप्रश्लेषचिह्नं नास्ति । २. आर्तवः -ख । ३. द्रुमे पलाशिता पर्णवत्ता, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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