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अलंकार चिन्तामणिः
अवटुतमति झटिति स्फुटचटुवाचाटधूर्जटेजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथान्येषाम् ||२८३||
सर्वत्र संभवद्वस्तु यत्रैकं युगपत्पुनः ।
एकत्रैव नियम्येत परिसंख्या तु सा यथा ॥ २८४॥
त्वार्थत्वाभ्याम् । तत्र शाब्दवर्ज्या प्रश्नपूर्वा यथा
पूर्वक 1
सा द्विधा प्रश्नाप्रश्नपूर्वकत्वभेदात् । तद्वयमपि द्विधा - वर्ण्यस्य शाब्द
आधारः कोऽस्ति जीवानां पुरुदेवो न विष्टपम् । अलंकारस्त्रैिलोक्याः कः पुरुनं च सुरालयः ॥ २८५॥
अर्थवर्ज्या प्रश्नपूर्वा यथातमोनिवारकः कोऽत्र वर्द्धमानजिनेश्वरः । शीतलीकुरुते लोकं को दिव्यध्वनिरर्हतः ॥ २८६॥
अन्य उदाहरण --
वादी समन्तभद्रकी विद्यमानता में स्पष्टरूपसे चातुर्यपूर्ण अधिक बोलनेवाले शिवजीकी भी जिह्वा तुरत भटकने लगती है, तो दूसरोंकी बात ही क्या है ॥२८३॥
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परिसंख्याका स्वरूप
जहाँ एक वस्तुकी अनेकत्र स्थिति रहनेपर भी अन्यत्र निषिद्ध कर एक ही अर्थ में नियमित कर दिया जाये, तो वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है ॥ २८४॥
वह परिसंख्या अलंकार दो प्रकारका है - ( १ ) प्रश्नपूर्वक और (२) अप्रश्न
इन दोनों के भी दो-दो प्रकार हैं- ( १ ) शाब्दवर्ण्य और ( २ ) आर्थवर्ज्य । शाब्दव प्रश्नपूर्वक परिसंख्याका उदाहरण
जीवोंका आधार कौन है ? पुरुदेव जीवोंके आधार हैं विषय नहीं । त्रिलोकों के विभूषण कौन हैं ? पुरुदेव तीनों लोकोंके विभूषण हैं । स्वर्गलोक नहीं ॥ २८५ ॥
अर्थ वर्ज्या प्रश्न पूर्वा परिसंख्याका उदाहरण
इस संसार में अन्धकारको दूर करनेवाला कौन है ? वर्द्धमान जिनेश्वर अन्धकारको दूर करनेवाले हैं । कौन इस संसारको शीतल करता है ? जिनेश्वर भगवान्की दिव्यध्वनि इस दुःखी संसारको शीतल करती है ॥२८६ ॥
१. खप्रतो 'सति' पदं नास्ति । २. खप्रतो 'तद्' पदं नास्ति । ३. वर्ज्यस्य शाब्दि त्वार्थित्वाभ्याम् - ख । ४. त्रिलोक्याम्
-ख ।
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