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________________ २०४ अलंकार चिन्तामणिः अवटुतमति झटिति स्फुटचटुवाचाटधूर्जटेजिह्वा । वादिनि समन्तभद्रे स्थितवति सति का कथान्येषाम् ||२८३|| सर्वत्र संभवद्वस्तु यत्रैकं युगपत्पुनः । एकत्रैव नियम्येत परिसंख्या तु सा यथा ॥ २८४॥ त्वार्थत्वाभ्याम् । तत्र शाब्दवर्ज्या प्रश्नपूर्वा यथा पूर्वक 1 सा द्विधा प्रश्नाप्रश्नपूर्वकत्वभेदात् । तद्वयमपि द्विधा - वर्ण्यस्य शाब्द आधारः कोऽस्ति जीवानां पुरुदेवो न विष्टपम् । अलंकारस्त्रैिलोक्याः कः पुरुनं च सुरालयः ॥ २८५॥ अर्थवर्ज्या प्रश्नपूर्वा यथातमोनिवारकः कोऽत्र वर्द्धमानजिनेश्वरः । शीतलीकुरुते लोकं को दिव्यध्वनिरर्हतः ॥ २८६॥ अन्य उदाहरण -- वादी समन्तभद्रकी विद्यमानता में स्पष्टरूपसे चातुर्यपूर्ण अधिक बोलनेवाले शिवजीकी भी जिह्वा तुरत भटकने लगती है, तो दूसरोंकी बात ही क्या है ॥२८३॥ [ ४१२८३ परिसंख्याका स्वरूप जहाँ एक वस्तुकी अनेकत्र स्थिति रहनेपर भी अन्यत्र निषिद्ध कर एक ही अर्थ में नियमित कर दिया जाये, तो वहाँ परिसंख्या अलंकार होता है ॥ २८४॥ वह परिसंख्या अलंकार दो प्रकारका है - ( १ ) प्रश्नपूर्वक और (२) अप्रश्न इन दोनों के भी दो-दो प्रकार हैं- ( १ ) शाब्दवर्ण्य और ( २ ) आर्थवर्ज्य । शाब्दव प्रश्नपूर्वक परिसंख्याका उदाहरण जीवोंका आधार कौन है ? पुरुदेव जीवोंके आधार हैं विषय नहीं । त्रिलोकों के विभूषण कौन हैं ? पुरुदेव तीनों लोकोंके विभूषण हैं । स्वर्गलोक नहीं ॥ २८५ ॥ अर्थ वर्ज्या प्रश्न पूर्वा परिसंख्याका उदाहरण इस संसार में अन्धकारको दूर करनेवाला कौन है ? वर्द्धमान जिनेश्वर अन्धकारको दूर करनेवाले हैं । कौन इस संसारको शीतल करता है ? जिनेश्वर भगवान्की दिव्यध्वनि इस दुःखी संसारको शीतल करती है ॥२८६ ॥ १. खप्रतो 'सति' पदं नास्ति । २. खप्रतो 'तद्' पदं नास्ति । ३. वर्ज्यस्य शाब्दि त्वार्थित्वाभ्याम् - ख । ४. त्रिलोक्याम् -ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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