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-२४४] चतुर्थः परिच्छेदः
१९१ तव सिंहस्य चक्रेश पौरुषेणास्तु तुल्यता किं तु ते भयतोऽरण्यमन्याशङ्का द्विषो गताः ॥२४१॥
'वनस्थितमन्यं सिंहमशङ्कमाना रिपवोऽरण्यं गता इत्युपमेयस्य चक्रिणो अधिकत्वम् ।।
पदैभिन्नैरभिन्नैर्वा वाक्यं यत्रैकमेव हि। अर्थाननेकान् प्रब्रूते स श्लेषो भणितो यथा ॥२४२।। भिन्नपदैरनेकार्थ वाक्यं यत्र वक्ति स श्लेषो यथातत्वन् कुवलये तुष्टिं वारिजोल्लासमाहरन् । कलानिधिरसो रेजे समुद्रपरिवृद्धिदः ॥२४३।। पक्षे भूवलये अधिजातहर्ष मुद्रया युक्तानाम् । द्वितीयश्लेषो यथाराज्ञस्तस्योदये तोषकरैस्तापहरैः करैः।
'सिन्धुनाधो महावेलां प्राप्य संववृधे तराम् ॥२४४॥ अन्य उदाहरण
हे चक्रवतिन् ? सिंहके पराक्रमसे तुम्हारे पराक्रमकी तुलना सम्भव है, किन्तु तुम्हारे भयसे सिंहकी आशंकावाले शत्रु जंगल में चले गये ॥२४१॥
वनमें रहते हुए दूसरे सिंहको शंका नहीं करनेवाले शत्रु तुम्हारे भयसे जंगल में चले गये । यहाँ उपमेय चक्रवर्तीकी अधिकताका वर्णन किया गया है। श्लेष अलंकारका स्वरूप
निश्चय ही जहाँ भिन्न या अभिन्न पदोंके द्वारा एक ही वाक्य अनेक अर्थों को कहता हो, उसे श्लेष कहते हैं ॥२४२।।
भिन्न पदोंसे जहाँ अनेकार्थक वाक्य अनेक अर्थोंको कहता है, उसे श्लेष कहते हैं। प्रथमश्लेषका उदाहरण
कुवलयों-रात्रिविकासी कमलोंको सन्तुष्ट करता हुआ, वारिज-कमलोंके आनन्दका अपहरण करता हुआ-संकुचित करता हुआ एवं समुद्रके उल्लासको बढ़ाता हुआ चन्द्रमा शोभित हो रहा है ॥२४३॥
द्वितीय पक्षमें पृथिवी मण्डलपर आनन्दित मुद्रासे युक्तोंका आनन्दहरण कर रहा है। द्वितीय श्लेषका उदाहरण
चन्द्रमारूपी उस राजाके उदित होनेपर सन्तुष्ट करनेवाली तथा सन्तापहरण करनेवाली उसकी किरणोंसे नीचे विशाल तटपर पहुँचकर समुद्रने अत्यधिक वृद्धिको प्राप्त किया ॥२४४॥
१. नवस्थित" -ख । २. सिन्धुनाथो -ख ।
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