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________________ १९० अलंकारचिन्तामणिः [४।२३८कारुण्यनिधिचक्रेशकीतिधावल्यसंपदः । दुग्धाब्धिमुकुरे शुभ्रे दृश्यन्ते विस्तृतात्मनि ॥२३८॥ यशोधावल्यस्य क्षीराब्धावसंभवेन साम्यनिश्चयात् यत्र प्रतीयते । प्रतिबिम्बनं भेदप्रधानं तु सदृक्षत्वं सधर्मणोः । अल्पाधिक्योक्तिभेदेन व्यतिरेको द्विधा यथा ॥२३९।। सधर्मणोरुपमानोपमेययोरुपमानादुपमेयस्याल्पत्वेन आधिक्येन वा वचनेन भेदमुख्यं 'सादृश्यं प्रतीयते स व्यतिरेकः। चन्द्रस्य त्वद्विषत्कीर्तेः क्षीणत्वेनास्तु तुल्यता। किंतु चक्रेश तत्कीर्तेनैवं वृद्धिः पुनः सदा ॥२४०।। चन्द्रस्य पुनः पुनः पुनर्वृद्धिसंभवेनाधिक्यमुपमेयभूतस्य तु वैरियशसः सदापि वृद्ध्यसंभव इति न्यूनत्वम् । अत्यन्त दयालु चक्रवर्तीको कोतिको उज्ज्वलतारूपी सम्पत्तियां अत्यन्त विस्तृत स्वरूपवाले स्वच्छ क्षीरसागररूपी दर्पणमें दिखाई पड़ती हैं ॥२३८॥ कोत्तिकी उज्ज्वलताके क्षीराब्धिमें असम्भव होने के कारण साम्य निश्चय होनेसे प्रतिबिम्बभाव प्रतीत होता है । व्यतिरेकालंकारका स्वरूप और भेद जहां उपमान और उपमेयका भेद प्रधान सादृश्य प्रतीत होता हो, वहां व्यति. रेकालंकार होता है। इसके दो भेद हैं-(१) उपमानसे उपमेयकी अल्पता और (२) उपमानसे उपमेयकी अधिकता ॥२३९॥ _ आशय यह है कि व्यतिरेकमें उपमानको अपेक्षा उपमेय का गुणोत्कर्ष दिखलाया जाता है। उपमानसे उपमेयका विशेष अतिरेक-गुणोत्कर्ष व्यतिरेक अलंकार है। समानधर्मवाले उपमान और उपमेयमें उपमानको अल्पता अथवा अधिकताके कथनसे भेदप्रधान सादृश्यको प्रतीतिके वर्णनको व्यतिरेक कहते हैं । व्यतिरेक अलंकारका उदाहरण हे चक्रवर्ती भरत ! चन्द्रमा और तुम्हारे शत्रुओंकी क्षीणताके साथ तुलना को जा सकती है, किन्तु चन्द्रमाकी शुक्लपक्षमें वृद्धि होती है, पर तुम्हारे शत्रुओंके यशको कदापि वृद्धि नहीं होती ॥२४०॥ चन्द्रमाकी वृद्धि सम्भव है, अतः उपमानको अधिकता है, पर शत्रुओंको यशोवृद्धि कदापि सम्भव नहीं होनेसे उपमेयकी न्यूनता है। १. साधर्म्यम् -क-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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