SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 252
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थः परिच्छेदः अत्र रुच्यर्थ योगाभ्यामुल्लेखः । श्लेषेण यथा जिष्णू रिपो वैरिरणेषु भीमः कलासु राजा कमलातिहृष्टौ । इनोऽचलेशो भुवि भूमिभृत्सु इति स्तुवन्ति स्म नृपं कवीन्द्राः || १४० ॥ - १४१ ] १५५ उल्लिखन्ति स्वस्वभावनया आरोपयन्ति बहूनि रूपाण्यस्मिन्नित्युल्लेखः । अध्यवसाय गर्भालङ्कृतिद्वयं यथा । अध्यवसायो नाम विषयविषयिणोरन्यतरनिगरणादभेदनिश्चयः । यत्री प्रकृतसंबन्धात्प्रकृतस्योपतर्कणम् । अन्यत्वेन विधीयेत सोत्प्रेक्षा कविनोदिता ॥ १४१ ॥ अप्रकृतगुणक्रियासंबन्धात् प्रकृतस्याप्रकृतत्वेनारोपणं यत्र सोत्प्रेक्षा । अतथ्यं तथ्य प्रतिभासयोग्यमुत्प्रेक्षन्ते उद्भावयन्त्यस्यामिति उत्प्रेक्षा । वाच्या गम्यमाना चेति सा च द्विधा । विद्मः मन्ये नूनं प्रायः इत्यादीनामारोपणप्रातिपदिकानां प्रयोगे वाच्या । प्रयोगस्य प्रतीयमानत्वात् । यहाँ रुचि और अर्थके योगसे पुरुकी नगरी अयोध्याका वर्णन अनेक रूपों में किया गया है । अतः उल्लेख है । श्लेषयोगजन्य उल्लेखका उदाहरण शत्रुओं के विषय में इन्द्र, शत्रुओंके साथ युद्ध में भीम, कलाओं में चन्द्रमा, अत्यन्त प्रसन्नावस्था में लक्ष्मी, पृथिवीपर राजा एवं पहाड़ों में हिमालय इस प्रकार बड़े-बड़े कवि राजाकी स्तुति करते थे ॥१४०॥ अपनी-अपनी भावनासे बहुत रूपोंका जिसमें उल्लेख होता है, उसे उल्लेखालंकार कहते हैं । अध्यवसाय मध्यवाला दो अलंकार है । विषय और विषयी में से किसी एकके निगरणसे अभेद निश्चय करना अध्यवसाय है । उत्प्रेक्षालंकारका स्वरूप --- जिसमें अप्रकृत अर्थ सम्बन्धसे प्रकृत अर्थका किसी दूसरे प्रकारसे वर्णन किया जाये, उसे विद्वानोंने उत्प्रेक्षालंकार कहा है ।। १४१॥ जहाँ प्रकृत वस्तुको गुण और क्रियाके सम्बन्ध से प्रकृतवस्तुका अप्रकृतवस्तुस्वरूपसे आरोप किया जाये, उसे उत्प्रेक्षालंकार कहते हैं । असत्यको सत्य रूपसे उद्भावन करना भी उत्प्रेक्षा है । उत्प्रेक्षा के दो भेद हैं- (१) वाच्योत्प्रेक्षा और (२) गम्यमानोत्प्रेक्षा । विद्मः — जानते हैं; मन्ये- मानता हूँ; नूनम् - निश्चय ही; प्रायः; इत्यादि आरोपण १. इति इत्यस्य स्थाने खप्रतौ चेति पाठः । २. बहून्यारोपाणि-ख । ३. प्रतीयमानत्वप्रयोगे इति - क प्रयोगे । प्रतिसमानत्वप्रयोगे इति - ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy