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________________ १५४ [ ४११३६ अलंकारचिन्तामणिः आद्यद्वयं यथानायं वायुसमुत्थिताम्बुधिमहानिर्घोषकोलाहलः श्रीमा धीशसभासुरप्रहतसभेरीनिनादो महान् । नायं ब्रह्मसभासुराहतसभेरी विराजध्वनि: श्रीवायूस्थितसारवारिधिमहानिर्घोषकोलाहलः ॥१३६।। अन्तिमं यथापुरोः सुपार्श्वयुग्मेऽभूत् पुष्पवृष्टिच्छलाद्वराः। मुक्तिलक्ष्मीकटाक्षाः श्रीधवलीकृतदिङ्मुखाः ॥१३॥ 'एकस्य शेषरुच्यर्थयोगैरुल्लेखनं बहु । ग्रहीतभेदादुल्लेखालङ्कारः स मतो यथा ।।१३८॥ लक्ष्मीगृहमिति प्राज्ञा ब्राह्मीपदमिति प्रजाः ।। कलाखनिरिति प्रीताः स्तुवन्ति सुपुरोः पुरीम् ॥१३९।। आरोप्यापह्नव और अपहवारोपके उदाहरण यह पवनके वेगसे उछलते हुए समुद्र के महानिर्घोषका कोलाहल नहीं है; किन्तु बहुत बड़े लक्ष्मीपतिकी सभामें विद्यमान देवताओंके द्वारा बजायी हुई उत्तम भेरोकी ध्वनि है। यह ब्रह्माकी सभामें स्थित देवगणके द्वारा बजायी हुई उत्तम भेरीकी सुन्दर ध्वनि नहीं है, किन्तु सुन्दर पवनके वेगसे समुत्थित समुद्रके महान् शब्दकी ध्वनि है ॥१३६॥ छकादि शब्दों द्वारा असत्य प्रलाप-कैतवापहृतिका उदाहरण __महाराज पुरुके दोनों ओर कुसुमवृष्टिके बहाने सुन्दर शोभासे सभी दिशाओंको श्वेत कर देनेवाले मुक्तिरूपी लक्ष्मीके कटाक्ष हुए ॥१३७॥ उल्लेखालंकारका स्वरूप ग्रहण करनेवालोंके भेदसे एक वस्तुका अवशिष्ट रुच्यर्थके सम्बन्धसे अनेक प्रकारका जिसमें उल्लेख किया जाये, विद्वानोंने उसे उल्लेखालंकार माना है ॥१३८॥ अर्थात् ज्ञातृभेदसे अथवा विषयभेदसे जहां एक वस्तुका अनेक रूपोंमें वर्णन किया जाये, वहाँ उल्लेखालंकार होता है। उल्लेखका उदाहरण बुद्धिमान् व्यक्ति लक्ष्मीका घर, प्रजाजन सरस्वतीका स्थान और प्रसन्नतासे युक्तजन कलाको खान कहकर महाराज पुरुकी नगरी की स्तुति-प्रशंसा करते हैं ॥१३९।। १. खप्रती एकस्य इत्यस्य पूर्वं ( उल्लेखः ) वर्तते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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