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________________ -१३५ ] चतुर्थः परिच्छेदः १५३ चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गकान्ति ज्योत्स्नेति मत्वा द्रवतीन्दुकान्तः । चकोरयूथं पिबति स्फुटन्ति कृष्णेऽपि पक्षे किल करवाणि ॥१३४।। अत्रारोपविषये जिनाङ्गकान्तौ चकोरादीनां ज्योत्स्नानुभवः। इदं न स्यादिदं स्यादित्येषा साम्यादपहनुतिः।। आरोप्यापहवारोपच्छलाद्युक्तिभिदा त्रिधा ॥१३५।। आरोप्यापह्नवः अपह्नवारोपः 'छलादिशब्दैरसत्यत्ववचनं चेति त्रिधा सा। तात्पर्य यह है कि प्रस्तुत के देखनेसे सादृश्यके कारण अप्रस्तुतका भ्रम हो जाये, वहाँपर भ्रान्तिमान् अलंकार होता है। दो वस्तुओंमें उत्कट साम्यके आधारपर वस्तुको स्मृति जागती है एवं इसके पश्चात् भ्रम उत्पन्न होता है। निश्चित मिथ्याज्ञान ही भ्रम है, इसमें ज्ञान तो होता है मिथ्या ही, पर मिथ्या होनेपर भी ज्ञाताके लिए यह मिथ्याज्ञान निश्चय कोटिका होता है । इसमें भ्रम स्थिति तो वाच्य होती है, पर सादृश्यकी कल्पना व्यंग्य । भ्रान्तिमान् का उदाहरण कृष्णपक्षमें भी जिसके शरीरको कान्तिको चन्द्रमाको किरणें मानकर चन्द्रकान्तमणि पिघल रहा है, चकोरका समूह उसका पान कर रहा है और कुमुद विकसित हो रहे हैं ॥१३४॥ यहां आरोप विषय चन्द्रप्रभके अंगकी कान्तिमें चकोर आदिको चन्द्रकिरणको भ्रान्ति हो रही है। अपह्नुतिका स्वरूप और उसके भेद ____ यह नहीं है, यह है इस प्रकार साम्यके कारण अपह्न ति अलंकार होता है । इसके तीन भेद हैं-(१) आरोग्यापह्नव (२) अपह्नवारोप और (३) छलादि उक्ति ॥१३५॥ __ आरोप्यापह्नव, अपह्नवारोप और छलादि शब्दोंके द्वारा असत्यवचनका निरूपण, इस प्रकार तीन प्रकारका अपह्नव अलंकार होता है । आशय यह है कि जहाँ प्रकृत–उपमेयका निषेधकर अप्रकृत-उपमानका आरोप किया जाये, वहाँ अपह्नति या अपह्नव अलंकार होता है। इस अलंकारमें आरोपपर्वक निषेध भी हो सकता है और निषेधपूर्वक आरोप भी। वस्तुतः अतिसादृश्यके कारण सत्य होनेपर भी उपमेयको असत्य कहकर उपमानको सत्य सिद्ध करना अपह्नति है । १. छलादिशब्दै सत्यवचनम्....-ख । २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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