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चतुर्थः परिच्छेदः श्रीमद्भरतराजस्य महाज्ञासुममञ्जरी ।
अभान्मुकुटबद्धानां मणिराजितमौलिषु ॥१०७॥ मालानिरवयवं यथा
दिङ्मातङ्गसुवर्णचामरततिः कल्पद्रुपुष्पावली खस्य क्षौमवितानमुच्चहिमवच्छृङ्गोत्थगङ्गानदी । श्रीकान्तोरुकटाक्षजालमतुलश्रीभूपमौलिस्रगा। दोशस्यात्मजकीतिविस्तृतिरभान्नमल्यगा भूतले ॥१०८।। ब्रह्मक्षिप्तजगत्यधिष्ठितमणिज्योतिस्तति वधूरागोद्रेकततिश्च दिक्करिलसत्सिन्दूरसान्द्रप्लवः'। बाभाच्छेषशिरोमणिद्युतिततिर्भानूरुबालातपः 'रवे कौसुम्भवितानमुल्लसति सत्त जस्ततिश्चक्रिणः ॥१०९।।
परम्परितं रूपककारणरूपकम् । अस्य रूपकद्वितयमात्रपर्यवसितत्वेन *समस्तविषयान्तर्भावशङ्का न कर्तव्या । परम्परितं केवलं श्लिष्टं यथा
वर्तिता है । अवयवके निरूपणसे ही अर्थकी समाप्ति देखी जाय, वह निरवयव है। अवयवके निरूपणमात्रमें भी वही रूपक है। वहां केवल यथा
__ मुकुटधारी राजाओंके मणियोंसे सुशोभित मस्तकोंपर श्रीमान् चक्रवर्ती भरतको महती आज्ञारूपी मंजरी सुशोभित हुई ॥१०७॥ मालानिरवयवका उदाहरण
दिग्गजोंके सुवर्णचामरकी पंक्ति, कल्पवृक्षके पुण्योंको राशि, आकाशका रेशमी वितान, अत्युच्च हिमालयके शिखरसे निकलो हुई गंगा, लक्ष्मीपतिके अत्यधिक कटाक्षका समूह, अनुपम शोभावाले राजाओंके मस्तकपर स्थित पुष्पहार और अत्यन्त स्वच्छ आदीश्वर भगवान्के तनय-भरतकी कोति धरतीपर सुशोभित हो रही थी ॥१०८।।
ब्रह्मासे फेंको तथा धरतीपर विद्यमान मणिको दीप्तिको राशि, पृथिवीरूपी नायिकाके रागकी अधिकताकी श्रेणी, दिग्गजके मस्तकपर सुशोभित सिन्दूरका अत्यधिक समूह, शेषनागके मस्तकको मणिकी राशि, सूर्यका अत्यधिक प्रातःकालिक घाम और आकाश में विस्तृत कौसुम्भरंगके वितान-रूपमें विद्यमान भरतचक्रवर्तीका तेजःसमूह सुशोभित हो रहा था ।।१०९॥
परम्परितरूपक और कारणरूपक । यह रूपकके दूसरे अवयव में हो परिसमाप्त है, अतः समस्त विषयक अन्तर्गत आनेको शंका नहीं करनी चाहिए। जहाँ प्रधानरूपक १. लेपः प्रथमप्रती पादभागे। २. भे को संभवितानमुल्लसति....-ख। ३. रूपकं कारणरूपकम् -ख । ४. समस्त वस्तुविषयान्त.... -ख ।
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