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________________ १४४ अलंकारचिन्तामणिः [ ४११०५ देदीप्यमानचक्रयर्कप्रतापातप उज्वले । मीलिताक्षा रिपूलूका वनगुल्मगृहे स्थिताः ॥१०५॥ अवयवनिरूपणादवयविनो निरूपणं गम्यं यत्र तदेकदेशविवति यथाअनेकान्तात्मार्थप्रसवफलभारातिविनते वचः पर्णाकीर्णे विपुलनयशाखाशतयुते । समुत्तुङ्गे सम्यक्प्रततमतिमूले प्रतिदिनं श्रुतस्कन्धे धीमान्नमयतु मनोमर्कटममुम् ।।१०६।। अनेकान्तात्मार्था एव प्रसवफलानीति वचांस्येव पर्णानीति"विपुलनया एव शाखा इति प्रसवाद्यवयवकथनात् ॥ श्रुतस्कन्धस्य शास्त्रस्य कल्पवृक्षत्वं गम्यत इत्येकदेशवर्तित्वम् । अवैयविनिरूपणादेव अर्थसमाप्तिर्यत्र तन्निरवयवम् । अवयवनिरूपणमात्रेऽपि तदेव रूपकम् । तत्र केवलं यथा निरवयव (३) परम्परित । पुनः सावयव भी दो प्रकारका है-(१) समस्त वस्तु विषय, (२) एकदेशविवर्ती । निरवयव भी दो प्रकारका है-(१) केवल और (२) मालारूप। परम्परित भी दो प्रकारका है-(१) श्लिष्टहेतुक और (२) अश्लिष्टहेतुक । ये दोनों भी केवल और मालारूपत्वसे दो-दो प्रकारके हैं; अतएव चार प्रकारके हुए तथा संकलन करनेपर रूपक के कुल आठ भेद हुए। जहाँ समस्त रूपसे अवयवों और अवयवीका निरूपण किया गया हो, उसे समस्त वस्तुविषय रूपक कहते हैं। उदाहरण उज्ज्वलवर्ण प्रकाशमान चक्री भरतेशरूपी सूर्यके प्रतापरूपी घाममें बन्द किये हुए नेत्रवाले शत्रुरूपी उल्लू वनके लतागृहोंमें निवास करते हैं ॥१०५॥ एकदेशवर्ती रूपक अवयवके निरूपणसे जहाँ अवयवीका निरूपण व्यंजनावृत्तिसे प्रतीयमान हो, वहाँ एकदेशवर्तीरूपक अलंकार आता है । यथा बुद्धिमान् मनुष्य प्रतिदिन इस मनरूपी मर्कट-बन्दरको अनेकान्तात्मार्थवादसे उत्पन्नफलसमूहके भारसे विनम्र, वचनरूपी पत्तोंसे भरपूर, अति विस्तृत नीतिरूपी सैकड़ों शाखाओंसे युक्त, अत्यन्त उच्च, अच्छी तरहसे विस्तृत बुद्धिरूपी जड़वाले ऐसे जिनेश्वर द्वारा प्रोक्त शास्त्ररूपी वृक्षपर क्रीडा करायें ॥१०६॥ यहां अनेकान्तात्मार्थ ही उत्पन्न फल, वचन ही पत्ते, उदार नीति शाखा, उत्पन्न फल-पुष्पादि अवयवके कहनेसे श्रुतस्कन्धकी कल्पवृक्षता प्रतीत होती है, अतः एकदेश १. उज्ज्वले-ख । २. तदेकदेशवति यथा-ख । ३. फलाभाराशि-ख । ४. क्रमयतु-ख । ५. विमलनया-ख । ६. अवयवनिरूपणादेव-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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