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१४६ अलंकारचिन्तामणिः
४११०पुरोः शास्त्रविधुः कार्यदक्षयुक्तिमहाद्युतिः । स्फारं कुवलयाह्लादं करोति सततं भुवि ॥११०।। श्लिष्टमालापरम्परितं तु यथासन्मार्गाचरणेन्दु'रुद्धकमलाह्लादोष्णभानुर्धराभृद्वजं सुमनः स्फुटत्वसुरभिर्देवागमास्थानभूः । सत्पद्मामृतवाधिरिन्ददुदितज्योतिविराजन्नभो बाभाति स्म विभुः पुरुः कुवलयानन्दैकचन्द्रो भुवि ॥१११॥
सन्मार्गाचरणं रत्नत्रयाचरणम् । पक्षे नभः पर्यटनम् । प्रशस्तपद्म'विकाशो सूर्यः पक्षे कमला लक्ष्मीः । धराभृतो रिपुभूपाः पर्वताश्च । पुष्पविकाशवसन्तः विद्वदानन्दकामधेनुश्च ॥
देवानां सुराणामागमनस्य सभाभूः। कल्पवृक्षस्थितिभूश्च । पद्मामृते अब्जपीयूषे लक्ष्मीसमुत्पादक्षीरवा शिश्च । इदु परमैश्वर्ये इन्दन्ति ज्योतीषि एक अन्य रूपकपर आश्रित रहता है, और वह बिना दूसरे रूपकके स्पष्ट नहीं होता, वहाँ परम्परितरूपक माना जाता है । केवलश्लिष्ट परम्परितका उदाहरण
___कार्यकुशलताकी युक्तिरूपी महाद्युतिवाला पुरुदेवका शास्त्ररूपी चन्द्रमा पृथ्वीपर निरन्तर अत्यधिक कुवलयको आह्लादित करता है ॥११०॥ श्लिष्टमाला परम्परितका उदाहरण---
सन्मार्गका आचरण करनेवाला चन्द्रमा; राशिबद्ध कमलोंको आह्लादित करनेवाला सूर्य; पर्वतोंके लिए वज्र; पुष्पों-सज्जनोंको विकसित करनेके लिए वसन्त; देवताओंके आगमनके लिए सभामण्डपस्थान; उत्तम कमलोंके लिए अमृत सरोवर; देदीप्यमान और उदित नक्षत्रादिकोंसे सुशोभित आकाश एवं कुवलयों-भव्योंको आनन्दित करनेवाला अद्वितीय चन्द्रस्वरूप सर्वव्यापक पुरुदेव पृथ्वीपर सुशोभित हो रहे थे ॥१११॥
सन्मार्गाचरण-रत्नत्रयका आचरण, पक्षान्तरमें नभः-पर्यटन, उत्तम कमलको विकसित करनेवाला सूर्य, पक्षान्तर में कमला-लक्ष्मी । धराभृतः-शत्रुराजा अथवा पर्वत; कुसुमोंको विकसित करनेवाला वसन्तऋतु अथवा विद्वानोंको आनन्दित करनेवाली कामधेनु ।
देवताओंके आगमनका सभास्थान कल्पवृक्षकी स्थितिका स्थान । पद्मामृतेकमल और अमृत अथवा लक्ष्मोको उत्पन्न करनेवाला समुद्र । Vइदु परम ऐश्वर्य
१. रुद्ध -ख । २. विकाश....-ख । ३. पुष्पविकासः वसन्तः-ख । ४. वाराशिश्चख। ५. इदि.... -ख । ६. इन्दतीति इन्दन्तीति....-ख ।
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