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________________ -९९ ] चतुर्थः परिच्छेदः स्पद्धते द्वेष्टि मुष्णाति विगृह्णात्यधिरोहति । तमन्वेति पदं धत्ते कक्ष्यां तस्य विगाहते ॥९६।। तच्छीलमनुबध्नाति तन्निषेधति लम्पति । लक्ष्मी सानुकरोतोन्दुरास्यलक्ष्मी समुच्छति ॥९७॥ इत्याद्याः शब्दाः सादृश्यवाचकाः॥ द्वितीयार्थनिवृत्त्यर्थ यत्रैकस्यैव रच्यते । उपमानोपमेयत्वं मतोऽनन्वय इत्यसौ ॥९८॥ यथासुधासूतिसहस्रांशुरत्नाकरसुराद्रयः । सन्तु सत्यपि नाभेयो नाभेय इव राजते ॥९९।। __ बराबरी करता है, द्वेष करता है, चुराता है, बलात् ग्रहण करता है, ऊपर चढ़ता है, उसका पीछा करता है, स्थान लेता है, उसकी कक्षामें प्रविष्ट होता है ॥१६॥ उसके चरित्रका अनुकरण करता है, उसको मना करता है, उसे लुप्त करता है, उसकी शोभाका अनुकरण करता है एवं उसके मुखको शोभाको प्राप्त करता है ॥९७॥ उपर्युक्त पद्योंमें प्रयुक्त शब्दोंकी गणना भी सादृश्यवाचक शब्दोंमें होती है। वस्तुतः सादृश्यको सूक्ष्मता, विशदता, चमत्कारोत्पादकता और सटीकता आदिपर ही उपमाकी रम्यता और उत्कृष्टता निर्भर है। उपमालंकारमें उपमेय और उपमानके बीच भेदका होना आवश्यक है। भेदके मिट जानेपर हो उपमा 'रूपक' हो जाती है । दूसरी ओर भेद यदि अधिक बढ़ जाता है तो उपमा अपना स्वरूप खोकर 'व्यतिरेक' का रूप ग्रहण कर लेती है। अनन्वयालंकार द्वितीय अर्थको निवृत्तिके लिए जहाँ एक हो वस्तुको उपमान और उपमेय दोनों बनाया जाता है, वहाँ अनन्वय नामक अलंकार होता है। आशय यह है कि श्रेष्ठ उपमानके अभावमें स्वयं उपमेयको हो उपमान कहा जाता है ॥९८॥ अनन्धयालंकारका उदाहरण चन्द्रमा, सूर्य, समुद्र और मेरु भले हो हों, किन्तु इनके रहनेपर भी नाभेय तो नाभेयके समान हैं ॥१९॥ १. समुच्छलति-ख । २. इत्याद्याश्च-ख । ३. द्वितीयार्थनिवृत्त्यम् ?-खयम् । ४. सन्तु सन्येऽपि-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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