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चतुर्थः परिच्छेदः एकया क्रिययाहीनं समाहृत्याधिकेन तु । वदन्ति कवयो यत्सा तुल्ययोगोपमा यथा ॥८७॥ नाकस्येन्द्रः सु जागति रक्षणाय भुवो निधीट। निरस्यन्तेसुरास्तेन राजानोऽनेन गर्विताः ।।८।। मेरुः स्थैर्येण कॉन्त्येन्दुर्गाम्भीर्येणाम्बुधिं रविम् । तेजसानूकरोतीति मता हेतूपमा तु सा ॥८९॥ एषूदाहरणेषु क्वचिन्नामतः क्वचिदर्थतो वा भेदोऽस्ति ॥ न लिङ्गं न वचो भिन्नं नाधिकत्वं न हीनता। दूषयत्युपमा यत्र नोद्वेगो यदि धीमताम् ॥९॥ स्त्रीव षण्डः प्रयात्यत्र स्त्री पुमानिव भाषते।
धनं वोपार्जिता विद्या प्राणा इव मम प्रियाः ॥९१।। से भिन्न है । तात्पर्य यह है कि अर्थान्तरन्यासमें साधर्म्य अथवा वैधर्म्य द्वारा सामान्यसे विशेषका या विशेषसे सामान्यका समर्थन किया जाता है। इस अलंकारमें अन्य अर्थको स्थापित किया जाता है । अर्थात् इसमें एक अर्थके समर्थन के लिए अन्य अर्थ स्थापित किया जाता है । इसमें दो वाक्य होते हैं-एक सामर्थ्य वाक्य और दूसरा समर्थक वाक्य । इन वाक्यों में सामर्थ्य-समर्थकभाव-रूप सम्बन्ध रहता है। तुल्ययोगोपमा
एक क्रियासे हीनको अधिकके समाहरण कर कवि लोग जो वर्णन करते हैं, उसे तुल्ययोगोपमालंकार कहते हैं ॥८७।। तुल्ययोगोपमाका उदाहरण
स्वर्गको रक्षाके लिए इन्द्र और पृथ्वोकी रक्षाके लिए चक्रवर्ती सावधान है। इन्द्रसे राक्षस भगाये जाते हैं और चक्रवर्तीसे अभिमानी राजा ॥८८।। हेतूपमा
स्थिरतासे मेरु पर्वतका, सुन्दरतासे चन्द्रमाका, गम्भीरतासे समुद्रका और तेजसे सूर्यका अनुकरण करता है । इस प्रकारके सन्दर्भोमें हेतूपमालंकार माना गया है ॥८९॥
उपर्युक्त उदाहरणोंमें कहीं नामसे अथवा कहीं अर्थसे भेद है। निर्दोष उपमाका औचित्य
न लिंग, न भिन्न वचन, न अधिकत्व और न हीनता उपमाको दूषित करते है, ( बशर्ते कि ) जहां बुद्धिमान लोग उद्वेग का अनुभव न करें ॥९॥
स्त्रीके समान नपुंसक चलता है, यहां स्त्री पुरुषके समान बोलती है तथा अजित धन या विद्या प्राणोंके समान मेरे लिए प्रिय हैं ॥९१॥
१. समाहृत्यादिकेन तु-ख। २. निधिट्-ख । ३. मेरुम्-ख। ४. कान्त्येन्दुम्-ख। ५. धोमता-ख। ६. दनंतोपाजिता विद्या-ख ।।
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