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________________ १३८ . अलंकारचिन्तामणिः [ ४४८२एकत्र संचितो वेन्दुः सर्वकान्तिगुणो वरः। वदनं ते विभातीति सात्वभूतोपमा मता ॥८२॥ सूर्यादिव जलं चन्द्राद्वाग्निर्वा विषतोऽमतम् । त्वदास्यात्परुषा वाणी चेत्यसंभावितोपमा ॥८३।। उद्गतं चन्द्रबिम्बाद् वा पद्ममध्यादिवोदितम् । भो सुभद्रे शुभं वक्त्रमिति सा विक्रियोपमा ॥८४।। वस्तूपन्यस्य यत् किञ्चिन्न्यासस्तत्सदृशस्य तु । सादृश्यप्रत्ययोऽस्तीति प्रतिवस्तूपमा मता ॥८५।। पुरोर्बहसुतेष्वेष चक्री भरत एव च। कि ज्योतिषां गणः सर्वः सर्वलोकप्रकाशकः॥८६।। अस्यां समानधर्मणैव न्यसनम् अर्थान्तरन्यासालंकारे तु प्रस्तुतार्थसाधनक्षमस्य सदृशस्य वा असदृशस्य वा न्यसनमिति सा भिन्ना तस्मात् ।। असम्भावितोपमा जैसे सूर्यसे जल, चन्द्रमासे अग्नि, विषसे अमृतको उपलब्धि असम्भव है, वैसे ही तुम्हारे मुखसे कठोरवाणीका निकलना असम्भव है। इस प्रकारके अलंकारको असम्भावितोपमा कहते हैं ॥८३॥ विक्रियोपमा हे सुभद्रा, तुम्हारा यह सुन्दर मुख चन्द्रमाके मण्डलसे निकला है अथवा कमलसमूहके बीचसे निकला है, इस प्रकारके अलंकारको विक्रियोपमा अलंकार कहते हैं ॥८४॥ प्रतिवस्तूपमा जिस किसी वस्तुको स्थापित कर उसके समान किसी दूसरी वस्तुके रखनेपर सादृश्यको प्रतीति होतो है; अतः इसे प्रतिवस्तूपमालंकार कहते हैं ॥८५॥ पुरु महाराज-ऋषभदेवके अनेक पुत्रोंमें चक्रवर्ती भरत ही हुए; क्या सम्पूर्ण नक्षत्रोंका समूह संसारको प्रकाशित करनेवाला होता है। आशय यह है कि जिस प्रकार सम्पूर्ण नक्षत्र मिलकर संसारको प्रकाशित नहीं कर सकते, केवल चन्द्रमा ही प्रकाशित करता है, उसी प्रकार पुरुदेवके अनेक पुत्रोंमें भरत ही चक्रवर्ती हुए, सभी पुत्र नहीं ॥८६॥ उपमा और अर्थान्तरन्यासमें अन्तर उपमामें सामान्यधर्मसे ही न्यास होता है, अर्थान्तरन्यासमें तो प्रस्तुत अर्थके साधनमें समर्थ, सदृश या असदृशका न्यास होता है, अतएव उपमालंकार अर्थान्तरन्यास १. सर्वलोकाप्रकाशकः-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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