SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 234
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३७ -८१ ] चतुर्थः परिच्छेदः शरदिन्दु: 'स्फुटं पद्म तवास्यमिति च त्रयम् । स्फुटान्योन्यविरोधीति सा विरोधोपमा मता ॥७७॥ प्रेतिजितमास्येन तवाजं जातु न क्षमम् । विषकण्टकसङ्गीति प्रतिषेधोपमा मता ||७८॥ त्वदास्यमेणदृष्टयङ्कमेणेनैवाङ्कितो विधुः । तुल्य एव तथाप्येष नोत्कर्षीति चटूपमा ॥७९।। न शशी वक्त्रमेवेदं नोत्पले लोचने इमे । इति सुव्यक्तसाधर्म्यात्तत्त्वाख्यानोपमैव सा ॥८॥ इन्दुपङ्कजयोस्साम्यमतिक्रम्य तवाननम् ।। स्वेनैवाभूत्समं चेति स्यादसाधारणोपमा ।।८।। विरोधोपमा शरद् ऋतुका चन्द्रमा, विकसित कमल और तुम्हारा मुख ये तीनों स्पष्ट रूपमें परस्पर विरोधी हैं, अतएव इसे विरोधोपमालंकार कहते हैं ।।७७॥ प्रतिषेधोपमा विष और कण्टकका संगी कमल तुम्हारे मुखकी समता कभी नहीं कर सकता; इस प्रकारके अलंकारको प्रतिषेधोपमालंकार माना गया है ॥७८॥ चाटूपमा ___ तुम्हारा मुख मृगनयनसे चिह्नित है और चन्द्रमा मृगसे ही अंकित है; ये दोनों यद्यपि समान ही हैं, तो भी यह उत्कर्षी नहीं है अर्थात् चन्द्रमा श्रेष्ठ नहीं है, इसे चाटूपमालंकार कहते हैं ॥७९।। तत्त्वाख्यानोपमा यह चन्द्रमा नहीं है, किन्तु मुख ही है; ये दोनों कमल नहीं हैं, किन्तु नेत्र हो हैं, इस प्रकार स्पष्ट सादृश्यके कारण तत्त्वाख्यानोपमा अलंकार माना गया है ।।८०॥ असाधारणोपमा चन्द्रमा और कमलकी समताका अतिक्रमणकर तुम्हारा मुख तुम्हारे मुखके ही समान है, इस प्रकारके सन्दर्भको असाधारणोपमा कहते हैं ॥८१॥ अभूतोपमा-- सम्पूर्ण प्रकाशमान गुणोंसे युक्त सुन्दर चन्द्रमा एक स्थान पर एकत्र हुआ तुम्हारे मुखके समान सुशोभित होता है ॥८२॥ २. प्रतिगभितुमास्येन-ख। ३. त्वदास्यमेण"-ख । १. स्फुटत्-क-ख । ४. मोत्कर्षीति""-ख। १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy