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________________ १३६ [४।७२ अलंकारचिन्तामणिः सुगन्धि परमालादि 'विकाशपरिमण्डितम् । शतपत्रमिवास्यं ते इति श्लेषोपमा स्मृता ॥७२॥ समानशब्दवाच्यत्वे स्यात्संतानोपमा यथा । वधू राजकरस्पर्शाद्विकचोत्पलिनीव सा ॥७३।। राजकरः भूपतिहस्तः चन्द्रकिरणश्च ।। इन्दुः क्षयी रजःपूर्ण पद्मताभ्यां मुखं तव । समं तथा चोत्कृष्टमिति निन्दोपमोदिता ॥७४॥ शशी शम्भुशिरोवर्ती पद्मोऽजोत्पत्तिकारणम् । समौ तौ वदनेनेति सा प्रशंसोपमा मता ॥७५।। सममास्यं तवाब्जेनेत्याचिख्यासू मनोहि मे। स दोषोऽस्तु गुणो वास्त्वित्याचिख्यासोपमोदिता॥७६।। श्लेषोपमा ___ सुन्दर गन्धयुक्त, अत्यधिक आनन्ददायक, विकसित कमल के समान तुम्हारा मुख है, इस अलंकारको श्लेषोपमालंकार कहते हैं ॥७२॥ सन्तानोपमा जहाँ समान शब्दसे उपमान और उपमेय दोनोंको कहा जाता है, वहाँ सन्तानोपमालंकार होता है । यथा-वह वधू राजा या चन्द्रके कर या किरणके स्पर्शसे विकसित-प्रफुल्लित कुमुदिनीकी भांति सुशोभित हुई ॥७३॥ निन्दोपमा चन्द्रमा क्षय-रोगसे ग्रस्त है और कमल धूलि-परागसे परिपूर्ण होता है, तो भी तुम्हारा मुख उन दोनोंके समान अथवा उन दोनोंसे श्रेष्ठ है। इस प्रकारके अलंकारको निन्दोपमालंकार कहा जाता है ।।७४॥ प्रशंसोपमा चन्द्र शिवके मस्तक पर है और कमल ब्रह्माकी उत्पत्तिका कारण है। उन चन्द्र और कमलके समान सुन्दर तुम्हारा मुख है। इस सन्दर्भ में आया अलंकार प्रशंसित उपमान रहने के कारण प्रशंसोपमा है ॥७५।। भाचिख्यासोपमा __ तुम्हारा मुख कमलके समान है, इस प्रकार कहने की इच्छावाला मेरा मन है। यह कथन दोषयुक्त हो अथवा गुणयुक्त; पर मेरी इच्छा ऐसी है। इस प्रकारके अलंकारको आचिख्यासोपमालंकार कहा गया है ॥७६।। १. विकारि-ख । २. इन्दुक्षयः-ख । ३. निन्दोपमा मता-खप्रतो नास्ति । ४. शशी इत्यादि ७५ श्लोको खप्रती नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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