SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 232
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३५ -७१ ] चतुर्थः परिच्छेदः समुच्चयोपमा क्षीरसिन्धुमन्वेति केवलम् । न गाम्भीर्येण बोधस्ते नैर्मल्येन च भो जिन ॥६७॥ नेत्रे त्वय्येव दृश्येते कासारे ललितोत्पले । इयमेव भिदा नान्या स्यादित्यतिशयोपमा ॥६८॥ स्वयोषिदास्यबुध्येन्दुमनुधावति नायकः । प्रासादतलमारुह्येत्येषा मोहोपमा मता ॥६९|| भ्रमभ्रमरमब्जं किं किं ते लोलाम्बकं मुखम् । मनो दोलायते मे भो इत्येषा संशयोपमा ।।७०॥ नै पद्मे जडगे शोभा चन्द्रे नापि कलङ्किते । अतस्त्वदास्यमेवेति मता सा निश्चयोपमा ।।७।। समुच्चयोपमा हे जिनेश्वर, आपका ज्ञान केवल गम्भीरतासे ही नहीं, किन्तु स्वच्छतासे भी क्षीरसागरका अनुकरण करता है, इस प्रकारके सन्दर्भो में समुच्चयोपमा नामक अलंकार होता है ।।६७॥ अतिशयोपमा ___ तुझमें ही ये दोनों नयन और तालाबमें सुन्दर दो कमल दीख पड़ते हैं; यही जहां भेद हो, दूसरा तनिक भी भेद प्रतीत न होता हो, वहाँ अतिशयोपमालंकार होता है ।।६८॥ मोहोपमा __ कोई नायक कोठे पर चढ़कर अपनी प्रियतमाका मुख जानकर चन्द्रमाके पीछे दौड़ रहा है, इस प्रकारके अलंकारको मोहोपमालंकार कहते हैं ॥६९।। संशयोपमा घूमते हुए भ्रमरोंवाला कमल है क्या ? अथवा चंचलनयनवाला तुम्हारा मुख है क्या? इस प्रकार मेरा मन भ्रान्त हो रहा है, इस तरहके अलंकारको संशयोपमा अलंकार कहते हैं ॥७॥ निश्चयोपमा अत्यन्त शीतल कमल-पुष्पमें ऐसी शोभा नहीं हो सकती और कलंकित चन्द्रमामें भी ऐसी शोभा नहीं हो सकती; इसलिए यह तुम्हारा मुख ही है, इस प्रकारके अलंकारको निश्चयोपमालंकार माना गया है ॥७१॥ १. इयमेवाभिधानान्या इति-ख । २. स्वयोषितास्य बुद्धेन्दु-ख। ३. इत्येषाम्-ख । ४. खप्रतौ ७१ श्लोको नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy