SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३० अलंकार चिन्तामणिः लुप्तानुक्तोपमाना तु वाक्यगा सा मता यथा । भरतस्य समस्त्यागो नास्त्येव त्रिजगत्यपि ॥५०॥ लुप्तानुक्तोपमाना सा यथा सा तु समासगा । भरतेशसमो राजा नास्ति नास्त्येव विष्ट ॥५१॥ येथा समासगा लुप्ता वाक्यधर्मोपमानिका । भरतेशयशस्तुल्यं न किंचिदपि भूतले ॥५२॥ 3 धर्मस्यानुपादानम् । अत्रोदाहरणचतुष्के न प्रतोपालंकार शङ्का, 'आक्षेपाभावादुपमानस्य चक्रिणः । अकथित उपमान लुप्तोपमाका उदाहरण - भरतके समान त्यागो तीनों लोकों में नहीं है । यहाँ भरतके लिए किसी भी उपमानका प्रयोग नहीं किया है ||५० ॥ [ ४५० समासगा लुप्तोपमा जो अकथित उपमानवाली उपमा है, उसे समासगा लुप्तोपमा कहते हैं । यथाभरतेश—भरत चक्रवर्त्ती के समान सम्राट् संसारमें नहीं है, नहीं ही है ।। ५१ ।। वाक्य धर्मोपमानिका समासगा लुप्तोपमा समासमें लुप्त सामान्यधर्म और लुप्तोपमानवाली लुप्तोपमा वाक्य धर्मोपमानिका समासगा लुप्तोपमा कहलाती है । यथा - चक्रवर्ती भरतके यश के समान पृथिवोपर कुछ नहीं है ॥५२॥ उक्त दोनों पद्यों में सामान्य धर्मका भो उपादान — कथन नहीं है । उपर्युक्त चारों उदाहरणों में प्रतीपालंकारकी भी आशंका नहीं की जा सकती है; क्योंकि उपमानभूत चक्रीका आक्षेप नहीं हुआ है । १. ५२ छन्दसः पूर्वम्- - क ख । - एतदुदाहरणद्वये त्यागोति राजेति च शब्दाभ्यां क्रमेण वितरणशीलत्व प्रजारञ्जकत्वरूपसादृश्यमुक्तम् । वाक्यगानुक्तधर्मोपमाना लुप्ता मता यथा । कीर्त्या निधीशिनः तुल्यं न किंचिदपि विष्टपे । इति अधिकः पाठः ॥ २. लुप्तानुक्तधर्मोपमानिका - क । ३. अत्रोदाहरणचतुष्केण प्रतीपालंकारशंका - ख । ४. आक्षेपाभावादुपमानस्य, उपमानस्याप्याधिक्यं न विवक्षितम् । यत्रोपमेयस्याधिक्यविवक्षयोपमानत्वमुच्यते तत्र प्रतीपालङ्कारः इति- । ५. कप्रतौ चक्रिणः इति पदं नास्ति । खप्रतौ चक्रिणः इति पदं तथा ५३ संख्याकः श्लोकः न स्तः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy