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________________ १२९ -४९ ] चतुर्थः परिच्छेदः क्विपा चानुक्तधर्मेवादिर्यथा जिनशासनम् । पीयूषति सुदृष्टीनां कालकूटति दुर्दशाम् ॥४७॥ उदाहरणेष्वेषु द्वयोरनुपादानं कैलासीयति पर्वतानित्यत्र कर्मक्यचि कैलासमिव करोतीति वासगेहीयतीति आधारक्यचि वासगेहे इव वर्तत इति 'मेरुदर्शनं पश्यन्तीति कर्मकारकात् णमि सति मेरुमिव पश्यन्तीति ज्योत्स्नाचारमिति कर्तृणमि सति ज्योत्स्नेव चरतीति ॥ अत्र 'इव' शब्दोऽन्तर्गत इति लुप्तत्वम् । लुप्ता कर्मक्यचानुक्तधर्मेवादिर्यथा मता। आदिब्रह्मगिरो लोके सुधीयन्ति महात्मनाम् ।।४८॥ लुप्ता क्यचापि चानुक्तधर्मेवादिर्यथा मता। कल्पवृक्षायते धर्मो जिनप्रोक्तः सुखार्थिनाम् ॥४९।। किपा अनुक्तधर्मा लुप्तोपमाका उदाहरण क्विप् के होनेपर सामान्यधर्म और इवादि लुप्त होनेपर लुप्तोपमा होती है। यथा-जिनेश्वरका शासन-सिद्धान्त सम्यग्दृष्टियोंके लिए अमृतके समान और मिथ्यादृष्टियोंके लिए विषके समान प्रतीत होता है ॥४७॥ उपर्युक्त उदाहरणों में सामान्यधर्म और इवादि इन दोनोंका कथन नहीं है । 'कैलासीयति पर्वतान्'–में कर्मणि क्यच् होनेपर कैलास शब्दसे 'कैलासीयति' रूप बनता है, जिसका अर्थ है- कैलासके समान आचरण करता है। 'वासगेहीयति' में आधारे क्यच हुआ है और इसका अर्थ है वासगृहमें जैसे । 'मेरुदर्शनं पश्यन्ति' में कर्मकारकसे 'णम्' प्रत्यय होने के कारण 'मेरुरिव पश्यन्ति' अर्थ है । "ज्योत्स्नाचारम्" में कर्नामें णम् प्रत्यय हुआ है और ज्योत्स्नाके समान घूमती है, अर्थ प्रकट होता है। इन सभी उदाहरणोंमें 'इव' शब्द लुप्त है, अतः लुप्तोपमालंकार है। कर्मक्यच् अनुक्तधर्मा लुप्तोपमाका उदाहरण कर्मणि क्यच् होनेसे अनुक्त सामान्यधर्मा इवादि लुप्त होनेके कारण उक्त उपमा होती है। यथा-संसारमें आदिब्रह्म-तीर्थंकर ऋषभदेवकी गिर -दिव्यध्वनि महात्माओं के लिए अमृतके समान होती है ॥४८॥ क्यच अनुक्तधर्मा लुप्तोपमाका उदाहरण क्यच्से अनुक्तधर्मा इवादि लुप्त होनेसे लुप्तोपमालंकार माना गया है। यथाजिनेश्वरसे कथितधर्म सुखाथियोंके लिए कल्पवृक्षके समान होता है अर्थात् उनकी समस्त इच्छाओंको पूर्ण करता है ॥४९॥ १. मेरुदर्श-ख । २. सुरीयन्ति-ख । ३. क्यजापि-ख । १७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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