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१२४ . अलंकारचिन्तामणिः
[४।२७___अत्र पुरे 'गृहाद्यारोपः साम्यं विना न स्यादिति सादृश्यकल्पनादुल्लेखालंकारः॥
न च मुक्तावली वक्षोलम्बमानादिचक्रिणः । वेक्षोगृहनिवासिन्या लक्ष्म्याः स्रक्कबरीगता ॥२७॥
अत्र वक्षोलम्बितमुक्तावलीमवलोक्य स्रगित्यारोपः । साम्यहेतुरेवेति साम्याक्षेपादपह्नवः। एवं तुल्ययोगिता दोपकं प्रतिवस्तपमा चेति । दृष्टान्तसहोक्तिव्यतिरेकनिदर्शनेष्वपि सादृश्यगम्यत्वान्नोपमाशङ्का। अतो विश्वेभ्यः साम्यहेतुभ्यो विलक्षणेयमुपमा। सा तावद् द्विधा, पूर्णोपमा लुप्तोपमा चेति ।
उपमानोपमेयोरुधर्मसादृश्यवाचिनाम् । वा यथेवादिशब्दानां मतां पूर्णा प्रयोगतः ॥२८॥ एकस्य वा द्वयोलप्ता त्रयाणां वा विलोपतः। पर्णोपमा पनर्द्वधा श्रौती चार्थीति भाषिता ॥२९॥
यहां नगरीमें घर इत्यादिका आरोप समताके बिना नहीं हो सकता है। अतएव सादृश्यको कल्पनाके कारण उल्लेखालंकार है ।
भरत चक्रवर्तीके वक्षःस्थलपर लटकती हुई यह मोतीकी माला नहीं है, किन्तु उनके वक्षःस्थलरूपी घरमें निवास करनेवाली लक्ष्मीकी केशरचनाको श्वेत पुष्पमाला है ॥२७॥
यहां वक्षःस्थलपर लटकती हुई मालाको देखकर मालाका आरोप समताके कारण हुआ है, अतः समताके आक्षेपके कारण अपह्नव अलंकार है। इसी प्रकार तुल्ययोगिता, दीपक और प्रतिवस्तूपमामें भी समझना चाहिए। दृष्टान्त, सहोक्ति, व्यतिरेक और निदर्शना अलंकारोंमें भी सादृश्यको प्रतीति होती है, अतः उक्त स्थलोंपर उपमालंकारको शंका नहीं है। इसलिए सम्पूर्ण साम्य हेतुओंकी अपेक्षा विलक्षण यह उपमा अलंकार होता है। उपमाके भेद
उपमालंकारके मूलतः दो भेद है-(१) पूर्णोपमा और (२) लुप्तोपमा । पूर्णोपमाका लक्षण
उपमान और उपमेयके विशेष धर्म सादृश्य वाचक वा, यथा, इव इत्यादि शब्दोंके प्रयोग विद्यमान रहने पर पूर्णोपमालंकार होता है ॥२८॥ लुप्तोपमाका लक्षण
__ उपमान, उपमेय साधारण धर्म और सादृश्यवाचक इव, वा आदि शब्दोंमें से एक, दो या तीनोंके लुप्त रहने पर उसे लुप्तोपमा कहते हैं ॥२९॥
१. गृहाध्यारोपः-ख। २. वक्षोगृहनिवासिन्याम्-ख ।
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