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________________ -३३] चतुर्थः परिच्छेदः साक्षात्सादृश्यसंवाचियथेवादिप्रयोगतः। श्रौती चार्थी तु संकाशनिकाशादिप्रयोगतः ॥३०॥ ते प्रत्येकं त्रिधा वाक्यसमासाभ्यां च तद्धितात् । पूर्णा षोढेति लुप्ता तु बहुधा केविनां मता ॥३१॥ अथोदाहरणानिश्रौती वाक्यगता पूर्णा यथा षट्खण्डपालिनः। भरतस्य यथा कोर्तिश्चान्द्रीन्दोयाप्तसर्वभूः ॥३२॥ श्रौती समासगा पूर्णा यथा स भरतो बभौ । भास्वानिवोदयाद्रिस्थस्तेजोनिवहभास्वरः ॥३३॥ अत्र भास्वानिवेति इवेन सह नित्यसमासः ॥ पूर्णोपमाके भेद पूर्णोपमाके दो भेद हैं-(१) श्रीती और (२) आर्थी । श्रौती और आर्थीके लक्षण साक्षात् सादृश्यवाचक इव, वा इत्यादि शब्दोंके प्रयुक्त होनेपर शाब्दी और संकाश, निकाश इत्यादि शब्दोंके प्रयोगसे आर्थी उपमा होती है ॥३०॥ पूर्णोपमाके भेदोंका निरूपण वाक्यगा, समासगा और तद्धितगाके भेदसे वे दोनों श्रौती और आर्थी-तीनतोन 'प्रकारकी हैं । इस प्रकार पूर्णोपमाके छह भेद हैं और लुप्तोपमा कई प्रकारको मानी गयी है ॥३१॥ वाक्यगता श्रौती उपमाका उदाहरण षट्खड पृथ्वीके पालन करनेवाले भरतको कोति चन्द्रमाको किरण जैसी है, जिस प्रकार चन्द्रज्योत्स्नासे समस्त पृथ्वी व्याप्त रहती है, उसी प्रकार भरतको कोतिसे समस्त पृथ्वी व्याप्त है ॥३२॥ श्रौतीसमासगताका उदाहरण वह भरत उदयाचलपर वर्तमान तेजके समूहसे चमकता हुआ सूर्यके समान सुशोभित हुआ ॥३३॥ यहाँ 'भास्वानिव' में इव के साथ नित्य समास हुआ । १. नोकाशादिप्रयोगतः-ख । २. बहुधा कविना मता क-ख । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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