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________________ -२६ ] १२३ चतुर्थः परिच्छेदः अत्र ज्ञानसाम्राज्यधर्मचक्रपदानां सीमानाधिकरण्याप्रयोगान्यथानुपपत्त्या साम्यं प्रतीयते इति नोपमा । किंतु रूपकालंकारः ॥ प्रतापी किमयं सूर्यः सूकान्तिः किमयं विधः । मेरुः किं निश्चलो वेति भरतो वीक्षितो जनैः ॥२४॥ अत्र भरतेशस्य सूर्यादीनां चान्योऽन्यभेदप्रतीतेः संशयहेतुत्वान्यथानुपपत्या सादृश्यं लक्ष्यते इति नोपमा । किंतु संदेहालंकारः। चन्द्रप्रभं नौमि यदङ्गकान्ति ज्योत्स्नेति मत्वा द्रवतीन्दुकान्तः। चकोरयूथं पिबति स्फुटन्ति कृष्णेऽपि पक्षे किल केरवाणि ॥२५॥ अत्र चन्द्रप्रभाङ्गकान्तौ ज्योत्स्नाबुद्धिः ज्योत्स्नासादृश्यं विना न स्यादिति सादृश्यप्रतीतौ भ्रान्तिमदलंकारः॥ लक्ष्मीगृहमिति प्राज्ञाः ब्राह्मीपदमिति प्रजाः। कैलाखनिरिति प्रीताः स्तुवन्ति सुपुरोः पुरीम् ॥२६।। उदाहरण __ सम्पूर्ण ज्ञानरूपी साम्राज्यपदपर प्रतिष्ठित हुए, संसारके भयको दूर करनेवाले धर्मचक्रके धारणकर्ता श्रीमान् ऋषभदेवको नमस्कार है ॥२३॥ यहां ज्ञानसाम्राज्य और धर्मचक्रपदोंमें सामानाधिकरण्य समताके बिना सर्वथा अनुपपन्न है; अतः अन्यथानुपपत्ति से समताकी प्रतीति होती है, अतएव उपमालंकार नहीं है, किन्तु रूपकालंकार है। __ यह विशेष तेजस्वी सूर्य है क्या ? यह सुन्दर शरीरवाला चन्द्रमा है क्या ? यह सुदृढ़ मेरु है क्या ? इस प्रकार भरतचक्रवर्ती मनुष्यों द्वारा देखे गये ॥२४॥ यहाँ भरतेशकी सूर्य इत्यादिके साथ परस्पर अभेदको प्रतीति होती है तथा संशयके कारण होनेसे अन्यथानुपपत्तिके द्वारा सादृश्य दीख पड़ता है, अतएव उपमालंकार न होकर सन्देहालंकार है। उन चन्द्रप्रभ तीर्थंकरको नमस्कार करता हूँ; जिनके शरीरको कान्तिको चन्द्रमाकी किरण मानकर चन्द्रकान्तमणि द्रवीभूत होता है, चन्द्रमाको किरण समझकर ही चकोरोंका समूह पान करता है और कृष्णपक्षमें कुमुद विकसित होते हैं ॥२५॥ यहाँ चन्द्रप्रभके अंगको कान्तिमें चन्द्रकिरणकी बुद्धि ज्योत्स्नाके सादृश्यके बिना नहीं हो सकती, अतः सादृश्य-प्रतीति होनेपर भ्रान्तिमान् अलंकार है। प्राज्ञ-बुद्धिमान् व्यक्ति देवनगरी-अमरावतीको लक्ष्मीका घर, प्रजागण सरस्वतीका स्थान और प्रेमी लोग कलाकी खान मानकर प्रशंसा करते हैं ॥२६॥ १. सामानाधिकरण्ये प्रयोगान्यथानुपपत्त्या-ख। २. ब्राह्मोगृहमिति-ख। ३. कलाखनिमिति-ख। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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