SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तृतीयः परिच्छेदः स्वयं शमयितुं नाशं विदित्वा सन्नतस्तु ते । चिराय भवतेऽपीड्य महोरुगुरवेऽशुचे ||१३|| "स्वयं शमयितु नाशं विदित्वा सन्नतः स्तुते । चिराय भवतेऽपीड्य महोरुगुरवे शुचे || १४ || -१४ ] अयुक्त भी यमकालंकार होता है अर्थात् उक्त आवृत्तियाँ यमकका विषय है । आशय यह है कि जहाँ अर्थको भिन्नता रहते हुए श्लोक, पाद, पद और वर्णोंकी पुनरावृत्ति होती है वहाँ यमकालंकार होता है । यह आवृत्ति पादके आदि, मध्य अथवा अन्तमें होती है तथा कहीं अन्य पाद, पद और वर्णोंसे व्यवहित और कहीं अव्यवहित ॥१२॥ यमकालंकार के प्रमुखभेद निम्नप्रकार हैं (१) प्रथम और द्वितीयपादकी समानता होनेसे मुख यमक होता है । (२) प्रथम और तृतीयपाद में समानता होनेसे सन्देश यमक होता है । (३) प्रथम और चतुर्थपाद में समानता होनेसे आवृत्ति यमक होता है । (४) द्वितीय और तृतीयपाद में समानता होनेसे गर्भ यमक होता है । (५) द्वितीय और चतुर्थपाद में समानता होनेसे संदष्टक यमक होता है । (६) तृतीय और चतुर्थपाद में समानता होनेसे पुच्छ यमक होता है । (७) चारों चरणोंके एक समान होनेसे पंक्ति यमक होता है । (८) प्रथम और चतुर्थ तथा द्वितीय और तृतीयपाद एक समान हों तो परिवृत्तियमक होता है । (९) प्रथम और द्वितीय तथा तृतीय और चतुर्थपाद एक समान हों तो युग्मक यमक होता है । (१०) श्लोकका पूर्वार्ध और उत्तरार्ध एक समान होनेसे समुद्गक यमक होता है । (११) एक ही श्लोकके दो बार पढ़े जानेपर महायमक होता है । १०१ पादांश, पदांश और वर्णोंकी आवृत्तिकी अपेक्षासे यमकके अनेक भेद हैं । यहाँ यमकालंकार के विभिन्न उदाहरणोंको प्रस्तुत किया गया है । हे जिनेन्द्र भगवन् ! शोक-राग-द्वेष-मोहको दूर करनेके हेतु; विनाशको शमन - शान्त करने के लिए आपको समर्थ जानकर सुखप्रद और महाज्ञान - केवलज्ञान से युक्त प्रभो ! आपको चिरकालसे मैं स्वतः प्रणाम करता हूँ ||१३|| हे पूजनीय, हे पवित्र ! प्रभावशालिनी दिव्यध्वनि-वाणीसे युक्त और सूर्यके समान तेजस्वी जिनेन्द्र भगवन् ! स्तुतिके विषय में विद्यमान, अतएव दुःखमय इस संसारको जानकर सुख प्राप्ति के लिए ज्ञानी जन स्वयं आपको प्राप्त करते हैं ॥ १४ ॥ १. श्लोकोऽयं ख प्रतो नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy