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________________ [३३३ अलंकारचिन्तामणिः अतिदूरपरित्यागात् तुल्यावृत्त्याक्षरश्रुतिः । या, सोऽनुप्रास इत्युक्तः कोविदानन्दकृद्यथा ॥३॥ सनयो विनयोपेतः प्रोतः सक्रमविक्रमः । वीरो धीरोऽज्वरोऽनिन्द्यो वन्द्यो रक्षतु नोऽक्षरः ॥४॥ अनुप्रासः स बोद्धव्यो द्विधा लाटादिभेदतः। लाटानां तत्पदः प्रोक्तश्छेकानां सोऽप्यतत्पदः ॥५॥ पुनः द्विरेफकी बात कही जाती है अर्थात् भ्रमर शब्द में दो रकार होनेसे वक्ता कमलदलपर द्विरेफके विचरणकी चर्चा करता है तो श्रोता पत्नी 'प्राणेश्वरा' में द्विरेफदो रकारका अर्थ ग्रहणकर उत्तर देती है कि यहाँ प्राणेश्वर कहाँ है ? इस प्रकार प्रथमार्द्ध में काकु द्वारा और उत्तरार्द्धमें श्लेषद्वारा प्रस्तावित अर्थसे भिन्न अर्थके द्योतक वाक्यका आश्रय लेकर उत्तर दिया गया है । अतः यहाँ वक्रोक्ति है । अनुप्रासका लक्षण छन्दमें अत्यन्त दूरीका परित्याग करनेसे समान अक्षरोंकी आवृत्तिका श्रवण या निरन्तर आवृत्तिको विद्वानोंको आनन्दित करनेवाला अनुप्रास अलंकार कहते हैं । स्वरके वैसादृश्यमें भी शब्द अथवा व्यञ्जनके सादृश्यसे अनुप्रास अलंकार होता है। इसमें रस भावादिके अनुकूल एक 'प्रकृष्ट' अथवा चमत्कारपूर्ण शब्दन्यास ( अनु + प्र + आस ) अथवा शब्दावृत्तिरूप अलंकार रहता है ॥३॥ साहित्यदर्पणमें 'शब्दसाम्य' को और काव्यप्रकाशमें 'वर्णसाम्य' को अनुप्रास कहा गया है। रुद्रटने काव्यालंकारमें 'एकद्वित्रान्तरितम् द्वारा' व्यंजन या शब्दको दूरीके अर्थको ग्रहण किया है। अलंकारचिन्तामणिके रचयिताने 'अन्तरित' पदके अर्थको 'अतिदूरपरित्यागात्' द्वारा अभिव्यक्त करनेका प्रयास किया है। उदाहरण नीतिवाला, विनयसे युक्त, प्रसन्न, क्रमसहित, पराक्रम युक्त, वीर, धीर, रोगरहित-जन्म-जरा-मरण रोगसे रहित, अनिन्द्य, सर्वथाप्रशंसनीय, अविनाशी, सिद्ध परमेष्ठी हमारी रक्षा करें ॥४॥ इस पद्यमें नयो-नयो, क्रम, क्रम, र-र, न्यो-न्द्यो में अनुप्रास है। इन वर्णोके साम्यसे माधुर्यका सर्जन हुआ है । अनुप्रासके भेद यह अनुप्रास अलंकार लाट, आदिके भेदसे दो प्रकारका होता है। लाट देशवाले कवियोंके लिए प्रिय होनेसे (१) लाटानुप्रास और उससे भिन्न ( २) छेकानुप्रास कहा गया है ॥५॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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