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________________ नमः सिद्धेभ्यः अथ तृतीयः परिच्छेदः शब्दार्थभङ्गतो यत्र प्रस्तुतादपरं वदेत् । पक्राभिप्रायतो वाच्यं वक्रोक्तिरिति सोदिता ॥१॥ कान्ते पश्य मुदालिमम्बुजदले नाथात्र सेतुः कथं तिष्ठेत्तन्न च तन्वि वच्मि मधुपं किं मद्यपायी वसेत् । मुग्धे मा कुरु तन्मति धनकुचे तत्र द्विरेफ ब्रुवे किं लोकोत्तरवृत्तितोऽधम इह प्राणेश्वरास्ते वद ॥२॥ वक्रोक्ति अलंकारका लक्षण जिस रचनाविशेषमें शब्द और अर्थकी विशेषताके कारण प्राकरणिक अर्थसे भिन्न कुटिलाभिप्रायसे अर्थान्तर कहा जाये, उसे विद्वानोंने वक्रोक्ति अलंकार कहा है । आशय यह है कि वक्रोक्तिमें 'श्लेष'के कारण अथवा 'काकु'-ध्वनिविकारके कारण, किसीके अन्यार्थक वाक्यको किसी अन्य अर्थमें लगा लिया जाता है। वक्ताके द्वारा भिन्न अर्थमें कही गयी बातको भिन्न अर्थमें प्रतिपादत करना वक्रोक्ति है ॥१॥ उदाहरण हे कान्ते-प्रियतमे ! कमलदलपर प्रसन्नतापूर्वक विचरण करनेवाले भ्रमरको देखो; हे स्वामिन् ! यहां सेतु कैसे रह सकता है ? हे कृशाङ्गि, सेतु नहीं कह रहा हूँ, मधुपकी बात कह रहा हूँ। क्या मद्यपायी-मद्य पीनेवाला कमलदलपर रह सकता है ? हे मुग्धे-सरलचित्तवाली, यह बात न समझो। हे सघन-कठोर कुचवाली, मैं द्विरेफकी चर्चा कर रहा हूँ। हे लोकातिशायी व्यवहारसे पतित ! क्या यहाँ तुम्हारी प्राणेश्वराप्रियतमा रहती है, यह बतलाइये ॥२॥ यहां 'अलिम्' के स्थानपर 'आलिम्' का प्रयोग कर वक्रोक्तिकी योजना की है । पृच्छक कमलदलपर अलिकी बात कहता है, पर उत्तर देनेवाली पत्नी 'आलिम्' अर्थात् सेतु या पुलका अर्थ लगाकर उत्तर देती है। जब अलिके पर्यायवाची मधुपका प्रयोग किया जाता है, तो श्लेष द्वारा मद्यपायो अर्थका उत्तर प्रस्तुत किया जाता है । १. खप्रती नमः सिद्धेभ्य इति पदं नास्ति । २. अथ अलंकारचिन्तामणी तृतीयः परिच्छेदः-ख । ३. खप्रतो तन्वि इति पदं नास्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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