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________________ ७५ -१४९] द्वितीयः परिच्छेदः स्नात स्वमलगम्भीरं जिनामितगुणार्णवम् । प्रतश्रीमज्जगत्सारं जना यात क्षणाच्छिवम् ॥१४८॥ मुरजबन्धः। पूर्वार्धम पक्ती तु लिखित्वाऽद्ध परं त्वतः । 'एकान्तरितमधिो मुरज "निगदेत् कविः ॥१४९।। पूर्वार्द्ध मेकपङ्क्त्याकारेण व्यवस्थाप्य पश्चार्द्धमेकपङक्त्याकारेण तस्याधः कृत्वा मुरजबन्धो निरूपयितव्यः । प्रथमपङ्क्तेः प्रथमाक्षरं द्वितीयपङ्क्तेद्वितीयाक्षरेण सह द्वितीयपङक्तेः प्रथममक्षरं प्रथमपङ्क्तेर्द्वितीयाक्षरेण सह उभयपङ्क्त्यक्षरेषु संयोज्यमाचरमात् । स्नात इति क्रियापदम्। ष्णा शौचे इति लेडन्तस्य धातोः रूपम् ॥ सुष्टु न विद्यते मलं यस्य सः स्वमलः । गम्भीरः अगाधः स्वमलश्चासौ सहित आकाश शोभित होता है। इस प्रकार उक्त समस्त प्रश्नोंका उत्तर 'भवति' उपर्युक्त श्लोकमें छिपा है । अतएव यहाँ 'नित तैकालापक' है । ये प्रहेलिका इत्यादि सभी प्रश्न आदिपुराणमें जिनसेनाचार्यने देवांगना और मरुदेवीको ललितपरिहास गोष्ठो सन्दर्भ में निबद्ध किये हैं । माता मरुदेवीने देवांगनाओंके प्रश्नों का उत्तर दिया है। मुरजबन्धका उदाहरण हे भव्यजीवो ! जिनेन्द्रदेवका अपरिमित गुणसमुद्र अत्यन्त निर्मल, गम्भीर, पवित्र, श्रीसम्पन्न और जगत् का सारभूत है। तुम उसमें एकाग्रचित्त होकर अवगाहन करो, उसके गुणोंको पूर्णतया अपनाओ और शीघ्र शिव-मोक्ष को प्राप्त करो ॥१४८॥ मुरजबन्ध की प्रक्रिया ऊपरकी पंक्ति में पूर्वार्ध पद्यको लिखकर नीचे उत्तराद्धको लिखे। एक-एक अक्षरसे व्यवहित ऊपर और नीचे लिखनेसे मुरजबन्धकी रचना होती है ॥१४९३॥ । पूर्वार्द्ध के विषम संख्याङ्क वर्णोंको उत्तरार्द्धके समसंख्याङ्क वर्गों के साथ मिलाकर लिखनेसे श्लोकका पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्धके विषम संख्याङ्क वर्णों को पूर्वार्ध के समसंख्यांक वर्णों के साथ क्रमशः मिलाकर लिखनेसे उत्तरार्द्ध बन जाता है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि प्रथम पंक्तिके प्रथमाक्षरको द्वितीय पंक्तिके द्वितीयाक्षरके साथ; द्वितीय पंक्तिके प्रथमाक्षरको प्रथम पंक्तिके प्रथमाक्षरके साथ दोनों पंक्तियोंके वर्णोंकी समाप्तिपर्यन्त लिखना चाहिए । १४८३ वें पद्यमें आया हुआ 'स्नात' यह क्रियापद है ।। ष्णा-'शौचे'से लेट् लकारका रूप स्नात बनता है। जिसमें अच्छी तरह मल-दोष न हों, वह स्वमल १. उत्तमपुरुषैकवचनम् प्रथमग्रन्थे पादभागे। २. पूर्वार्धमूर्ध्वपङ्क्तो तु-क । ३. लिखित्वार्धपरं त्वतः -ख । ४. एकान्तरितमूदिौ –ख । ५. निपठेत्कविः -क ।. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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