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________________ ७६ अलंकारचिन्तामणिः [ २११५०गम्भीरश्च स्वमलगम्भीरः तं स्वमलगम्भीरम् । न मिताः अमिताः । अमितास्ते गुणाश्च अमितगुणाः जिनस्यामितगुणाः जिनामितगुणा एव अर्णवः समुद्रः । अथवा जिन एवामितगुणार्णवः तम् पूतः पवित्रः। श्रीमान् श्रीयुक्तः। जगतां सारः जगत्सारः पूतश्च श्रोमांश्च जगत्सारश्च पूतश्रीमज्जगत्सारस्तम् । जनाः लोकाः । यात क्रियापदम् । या प्रापणे इत्यस्य धातोर्लेडन्तस्य प्रयोगः । क्षणात् अचिरात् अचिरेणेत्यर्थः। शिवं शोभनं शिवरूपमित्यर्थः। किमुक्तं भवतिहे जनाः जिनामितगणार्णवं यात स्नात। अथवा जिनामितगणार्णवं स्नात येन क्षणाच्छिवं यात इति । शेषाणि पदानि जिनामितगुणार्णवस्य विशेषणानि । अभिषिक्तः सुरैर्लोकैस्त्रिभिर्भक्तिपरैर्न कैः। वासुपूज्य मयीशेशं त्वं सुपूज्यः कयोदृशः ॥१५॥ कहलाता है । गम्भीरका अर्थ अगाध है। निर्मल और गम्भीर यह अर्थ 'स्वमल गम्भीरम्' पदका है। नमिता:-अमिताः-अपरिमित । अपरिमित गुणवाले जिन, अपरिमित गुण समुद्र-यतः अर्णव पदसे समुद्रका अर्थ सूचित होता है अतएव 'जिनामितगुणार्णवम्' पदका अर्थ जिनदेवका अपरिमित गुण समुद्र है। यह गुण समुद्र-पूतः-पवित्र है। श्रीमान्-श्रीयुक्त है। 'जगतां सार:'-जगत्का सारभूत है। 'जनाः'-'लोकाः'लोक । 'यात' यह क्रियापद है। 'क्षणात'-'अचिरात्'-शीघ्र ही, 'शिवम्, 'शिवरूपम्'मोक्ष या आत्मकल्याणको। अतः पद्यका अर्थ हे जनाः-हे भव्यजन, अपरिमित जिन गुण समुद्रमें स्नान करो। इस गुण समुद्र में स्नान करनेसे शीघ्र ही शिवमोक्षकी प्राप्ति होती है। शेष पवित्र, गम्भीर, निर्मल, श्रीसम्पन्न आदि विशेषणोंको अपरिमित जिन गुण समुद्र के साथ अन्वित कर लेना चाहिए । अनन्तरपादमुरजबन्धका उदाहरण हे प्रभो ! जब देवोंने मेरु पर्वतपर ले जाकर आपका अभिषेक किया और भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क, मनुष्य, तिर्यंच आदि तीनों लोकोंके प्राणियोंने आपको सेवा की, तब ऐसा कौन होगा, जो आपको सेवा न करे ? हे वासुपूज्य ! आप मेरे लिए सर्वश्रेष्ठ ईश्वर हैं, आप पूजनीय है, आप जैसे अर्हत्पुरुषसे भिन्न और कौन है, जो मेरा स्वामी हो सके ॥१५०३॥ १. 'अमिताश्च ते गुणाश्च' इति पदद्वयं खप्रतौ न नास्ति । २. भुक्त:-क । ३. अमरेश्वरो वासुरुच्यते । वासुना पूज्यो वासुपूज्यः। अथवा वसुपूज्यो नाम जिनजनकस्तस्य संबन्धी पुत्रो वासुपूज्यः । ङसस्स्वे इत्यण् । अथवा व्युत्पत्तिर्न नाम्नि । ४. वासुपूज्यः मयीशेशः -क। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001726
Book TitleAlankar Chintamani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitsen Mahakavi, Nemichandra Siddhant Chakravarti
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1944
Total Pages486
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Kavya
File Size25 MB
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