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का विरोध, किसी प्राथमिक साधक की हीन कक्षा के लिए किसी अशक्य अथवा अयोग्य साधना का विधान करने से विरोध; इत्यादि रूप यहां कोई विरोध नहीं हैं; कारण जिनप्रवचन, (१) साक्षात् और परंपरा से मोक्षदायी साधनाओं का विधान जीवों की कक्षा के अनुसार ही करता हैं;- (२) उत्सर्ग-अपवाद अविरुद्ध फरमाता है क्योंकि अपवादसाधना भी आखिर मोक्ष के उद्देशवाली ही बताता है; (३) उनके अनुरूप ही अन्यान्य आचरणों का उपदेश करता हैं, (४) सबसे बडी बात, ऐसे स्याद्वाद आदि सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है जिनके आधार पर विधि-निषेध, साधना-आचरणा, और जीवादि तत्त्व-व्यवस्था सङ्गत होती हैं, और (५) प्रारंभसे अंत तक इस सभी के प्रतिपादनमें कोई पूर्वापर वचन विरोधसे कलंकित नहीं है। इस प्रकार जिनप्रवचन समर्थ और अविसंवादी श्रेष्ठ नाव समान होने से क्यों भवपार न कर सके ?
ज्ञानकैवल्य और मोक्षकैवल्य :
तीर्थ यानी प्रवचन अपौरुषेय नहीं किन्तु सर्वज्ञ पुरुषसे प्रवृत्त होता है इसीलिए कहा जाता है कि तीर्थंकरकी आत्मा के पूर्वोक्त ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीय-अंतराय इन चार कर्म, जो ज्ञानादि गुणों के घातक होने से घाती कर्म कहलाते हैं, उनका संपूर्ण क्षय हो जाने से ज्ञानकैवल्य प्राप्त होता है; अर्थात् वे केवलज्ञान
और केवलदर्शन' नामके अनन्त ज्ञान-दर्शन प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी होते हैं। यहां बाकी चार अघाती कर्मोका नाश नहीं होने के कारण वे अभी मुक्त नहीं हुए हैं अर्थात् मोक्षकैवल्य प्राप्त नहीं कर चुके हैं। लेकिन ज्ञानकैवल्य स्वरूप सर्वज्ञता-सर्वदर्शिता प्राप्त होने पर वे वीतराग होते हुए भी 'तीर्थंकर नामकर्म' नामके उत्कृष्ट पुण्य का उदय होने पर वे तीर्थकरण के स्वभावसे आगमों के अर्थ का प्रकाशन करते हैं। उदाहरणार्थ जैसे सूर्य वगैरह स्वभावतः विश्व को प्रकाश देते हैं। श्री तत्त्वार्थ महाशास्त्र के भाष्य के ९ वें श्लोक में कहा है। 'तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थंकर एवम् ॥'
अर्थात् 'जैसे सूर्य प्रकाशकरण के स्वभाव से ही जगत का उद्योत करता है, वैसे तीर्थंकर भगवान तीर्थकरण के स्वभाव से ही तीर्थ प्रवर्तनमें प्रवर्तते है। वे अपने गणधर शिष्योंको सकल शास्त्रों के मूलभूत अर्थ तीन 'मातृका' पदों से देते हैं। उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धूवे इ वा।' (अर्थात् समस्त जगत उत्पन्न होता है, नष्ट होता है, और स्थिर रहता है) ये तीन पद 'मातृका' पद कहलाते हैं। इनका उपदेश तीर्थंकर भगवान के मुखसे सुनने का अतिशय समर्थ निमित्त पाकर प्रधान शिष्य श्री गणधर महाराजों का संयम-ग्रहण, विनीतभाव, अर्हत्समर्पण, असाधारण तत्त्व जिज्ञासा-शुश्रूषा, कुशाग्रबुद्धि, और पूर्वभव की प्रबल धर्मसाधना वश श्रुतज्ञानावरण कर्मो का वहां विशिष्ट क्षयोपशम हो जाता है; जिससे द्वादशांगी आगम सूत्रों की रचना करते हैं और सर्वज्ञ अरिहंत परमात्मा उन्हें प्रमाणित करते हैं।
___ इस प्रकार अर्हत्प्रभु जो शास्त्रार्थ प्रतिपादन करते हैं वह ज्ञानकैवल्य के बल पर हो सकता है। अन्यथा यदि प्रथमत: मोक्ष स्वरूप मुक्त-कैवल्य संपन्न हो जाता, तब तो शरीर ही छूट जाने से मुखादि के विना प्रवचन कैसे किया जा सकता? और सर्वज्ञ के प्रवचन विना कोई भी आगम कैसे सर्जित हो सके ? तब यह भी नहीं कह सकते कि अकेवली अर्थात् केवलज्ञान रहित असर्वज्ञ के द्वारा स्वतन्त्र रूप में विरचित शास्त्र प्रमाणभूत होंगे; क्यों कि उनमें व्यभिचार सम्भवित है, कल्पना से कही गई वस्तु की अपेक्षा जगतमें वास्तविक स्थिति कोई और ही हो सकती है। तो यह भी कहना अनुचित है कि आगमशास्त्र अपौरुषेय है, अर्थात् कोई भी पुरुष से प्रणीत नहीं किन्तु नित्य है। अपौरुषेय कैसे नहीं हो सकता यह आगे कहेंगे।
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