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________________ (ल०)- ततश्चैतदुक्तं भवति, घातिकर्मक्षये ज्ञानकैवल्ययोगात्तीर्थकरनामकर्मोदयतस्तत्स्वभावतया आदित्यादिप्रकाशनिदर्शनतः शास्त्रार्थप्रणयनात्, मुक्तकैवल्ये तदसम्भवेनागमानुपपत्तेः, भव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन परम्परानुग्रहकरास्तीर्थकराः । इति तीर्थकरत्वसिद्धिः । (पं०)- 'घातिकर्मे'त्यादि । 'घातिकर्मक्षये' =ज्ञानावरणाद्यदृष्टचतुष्टयप्रलये, 'ज्ञानकैवल्ययोगात्' 'ज्ञानकैवल्यस्य' केवलज्ञानदर्शनलक्षणस्य च योगात्' सम्बन्धं प्राप्य, 'तीर्थकरनामकर्मोदयात्' = तीर्थंकरनाम्नः कर्मणो विपाकाद्धेतोः, 'तत्स्वभावतया' =तीर्थकरणस्वाभाव्येन, कथमित्याह 'आदित्यादिप्रकाशनिदर्शनतः' इति–'तत्स्वाभाव्यादेव प्रकाशयति भास्करो यथा लोकम् । तीर्थप्रवर्तनाय प्रवर्तते तीर्थकर एवम् ॥ १ ॥ (तत्त्वार्थभाष्ये कारिका ९) आदिशब्दाच्चन्द्रमण्यादिनिदर्शनग्रहः, किमित्याह-'शास्त्रार्थप्रणयनात्', 'शास्त्रार्थस्य =मातृकापदत्रयलक्षणस्य, 'प्रणयनाद्' उपदेशनात् तीर्थकरा इति वक्ष्यमाणेन सम्बन्धः । विपक्षे बाधकमाह'मुक्तकैवल्ये' =अपवर्गलक्षणे, 'तदसम्भवेन' =शास्त्रार्थप्रणयनाघटनेनाशरीरतया प्रणयनहेतुमुखाद्यभावाद्, 'आगामानुपपत्तेः' =आगमस्य परैरपि प्रतिपन्नस्य 'अनुपपत्तेः' = अयोगात् । न चासावकेवलिप्रणीतो, व्यभिचारासम्भवात्, (प्र०.....व्यभिचारसम्भवात्) नाप्यपौरुषेयस्तस्य निषेत्स्यमानत्वात्, कीदृशाः सन्त इत्याह'भव्यजनधर्मप्रवर्तकत्वेन' = योग्यजीवधर्मावतारकत्वेन, ‘परम्परानुग्रहकराः,' 'परम्परया' =व्यवधानेन 'अनुग्रहकरा' = उपकारकराः, कल्याणयोग्यतालक्षणो हि जीवानां स्वपरिणाम एव क्षायोपशमिकादिरनन्तरमनुग्रहहेतुः तद्धे तु तया च भगवन्तो, अथवा 'परम्परया' = अनुबन्धेन स्वतीर्था नुवृत्तिकालं यावत् सुदेवत्वसुमानुषत्वादिकल्याणलाभलक्षणया वाऽनुग्रहकरा इति ॥ साधना बताई गई हैं। इनमें मन-वचन-कायासे करण-करावण-अनुमोदन तीनों रूपसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म हिंसादि पापों के त्यागपूर्वक अहिंसा-सत्य-अस्तेय-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह के महाव्रतों का पालन, निर्दोष माधुकरी भिक्षाचर्या, अप्रतिबद्ध पादविहार, केशलोच, विषय-कषाय-निद्रा-विकथादि प्रमादोंका त्याग, आवश्यक सहित ज्ञानध्यानमय निष्पाप जीवन, केवल धर्म का उपदेश.... इत्यादि शुद्ध योगसाधना का ही चारित्र होने से संसार-कारणों के रुकावट द्वारा संसारका उच्छेद होना युक्ति युक्त है। धर्म संपन्न महापुरुषों के दृष्टांत : (३) उपरोक्त सच्चे तत्त्व और निर्दोष चारित्रके पथ पर चलनेवाले खुद तीर्थंकर भगवान से लेकर कई मोक्षगामी चक्रवर्ती राजा महाराजा सेट साहुकारादि महापुरुषों के दृष्टांत मिलते हैं। उनके द्वारा सिद्ध की गई, विशुद्ध श्रुत-धर्म और चारित्र-धर्म, अहिंसा-संयम-तपोमय धर्म, दान-शील-तप-भावनामय धर्म, सम्यग्दर्शनज्ञान-चारित्रमय धर्म..... इत्यादि धर्मसंपत्तियों के दृष्टान्त मिलते हैं, तो उनका आलम्बन ले कर शुद्ध धर्मजीवन और फलतः संसारका उच्छेद क्यों न हो सके? अविसंवादी प्रतिपादन : (४) ऐसा जिनप्रवचन ही अज्ञान, मोह और असत्प्रवृत्तिका अन्त ला कर सर्व कर्मो के क्षय करने पूर्वक जीवों के जन्म-जरा-मृत्यु आदिका उच्छेद करनेका अचिन्त्य सामर्थ्य रखता है। एवं वह अविसंवादी है अर्थात् इसमें किसी भी प्रकार का विरोध नहीं है। विरोध कई प्रकार के होते हैं, जैसे कि पूर्वापर वचनों का विरोध, उत्सर्गअपवाद का विरोध, विधिनिषेध के साथ अवान्तर आचार मार्ग का विरोध, मूल उद्देश के साथ अवान्तर विधानों ७२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001721
Book TitleLalit Vistara
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Religion
File Size11 MB
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